Ira
इरा मासिक वेब पत्रिका पर आपका हार्दिक अभिनन्दन है। दिसंबर 2024 के अंक पर आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।

साहित्य का समाज से अलग कोई अस्तित्व नहीं है- डॉ० राकेश जोशी

साहित्य का समाज से अलग कोई अस्तित्व नहीं है- डॉ० राकेश जोशी

देहरादून (उत्तराखण्ड) निवासी डॉ० राकेश जोशी हिंदी ग़ज़ल के वरिष्ठ रचनाकारों में एक महत्त्वपूर्ण नाम हैं। आप पिछले तीन दशकों से अधिक समय से साहित्य सृजन में सक्रिय हैं। अब तक आपके तीन ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, जिन्हें भरपूर सराहना मिली है। इसके अलावा सैंकड़ों पत्र-पत्रिकाओं तथा ऑनलाइन पोर्टलों पर आपकी रचनाएँ प्रकाशित होती रही हैं। डॉ० जोशी का उत्तराखण्ड की उच्च शिक्षा में भी अहम योगदान रहा है। कुछ ही समय पूर्व इनका नया संग्रह 'हर नदी की आँख है नम' प्रकाशित होकर आया है। साहित्य तथा ग़ज़ल के पाठकों के लिए प्रस्तुत है विभिन्न विषयों पर इनके साथ हुआ एक संवाद।

के० पी० अनमोल- अपने आरंभिक जीवन के बारे में बताइए। जन्म कहाँ और किस परिवेश में हुआ? शिक्षा की क्या व्यवस्था रही?
डॉ० राकेश जोशी- मेरा जन्म उत्तराखण्ड तत्कालीन उत्तरप्रदेश के एक छोटे-से गाँव गुगली (चंद्रापुरी) ज़िला- रुद्रप्रयाग में 9 सितंबर, 1970 को हुआ। पिताजी पीताम्बर दत्त जोशी पहले भारतीय सेना में कार्यरत थे और सेना से सेवानिवृत्ति के पश्चात् वे उत्तरप्रदेश के मिर्ज़ापुर ज़िले में स्थित कोल इंडिया लिमिटेड के बीना परियोजना नामक स्थान पर, जो वर्तमान में सोनभद्र जिले में है, सेवारत रहे।
दूसरी कक्षा तक मेरी पढ़ाई गाँव के ही सरकारी प्राथमिक विद्यालय में हुई क्योंकि मैं अपनी माँ उर्मिला देवी जोशी, अपनी दीदी रोशनी और छोटी बहनों- सुनीता और अनीता के साथ गाँव में ही रहता था। कुछ समय बाद हम सभी भाई-बहन पिताजी के साथ रहने के लिए बीना परियोजना आ गये। इंटरमीडिएट तक आगे की पढ़ाई बीना परियोजना के जूनियर हाई स्कूल, केंद्रीय विद्यालय, सिंगरौली (मध्यप्रदेश) और डी० ए० वी० पब्लिक स्कूल, ककरी, बीना परियोजना में हुई। इंटरमीडिएट की परीक्षा मैंने प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की।

इसी दौरान, मेरी बड़ी बहन रोशनी जोशी का विवाह अगस्त्यमुनि (रुद्रप्रयाग) में व्यवसायी और पत्रकार चंद्रप्रकाश भट्ट से होने के कारण मैं भी आगे की पढ़ाई के लिए हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय, श्रीनगर (गढ़वाल) आ गया, जहाँ से मैंने बी०ए०, एम०ए०, एम०फ़िल और डी०फ़िल की डिग्री हासिल की।

बचपन से ही घर में पढ़ाई का माहौल बहुत अच्छा था। जितनी देर तक मैं पढ़ता था, पिताजी मेरे सामने बैठे रहते और फिर जो कुछ भी मैंने पढ़ा होता, उससे संबंधित सवाल पूछते, सही जवाब न देने पर पिटाई भी करते, इसलिए मैं पिताजी से बहुत डरता था और ख़ूब पढ़ता था।

के० पी० अनमोल- बचपन और पढ़ाई के दौरान की गाँव व बीना की क्या स्मृतियाँ हैं ज़ेहन में?
डॉ० राकेश जोशी- गाँव के प्राइमरी स्कूल की एक घटना मुझे याद है। सर्दियों में वहाँ कक्षा एक से पाँचवीं तक के सभी बच्चे एक साथ स्कूल के प्रांगण में बैठते थे। एक बार वहाँ इंस्पेक्शन के लिए इंस्पेक्टर ऑफ स्कूल्स आए। उन्होंने चौथी और पाँचवीं के बच्चों से कुछ सवाल पूछे और कुछ शब्द लिखने को कहे, जो उन्हें नहीं आए। मैं दूसरी कक्षा में पढ़ता था, मैं भी वहीं बैठा था। मैंने खड़े होकर कहा- "मैं बताऊं?", और फिर मैंने सभी सवालों के सही जवाब दिए और हिंदी और अंग्रेज़ी के जो शब्द उन्होंने लिखने को कहे थे, वे भी मैंने ब्लैक-बोर्ड पर लिख दिए। हमारे शिक्षक और उन्होंने मेरी बहुत प्रशंसा की, और मैं बहुत ख़ुश हुआ। हमारे शिक्षक ने यह बात हमारे घर आकर मेरी माँ को भी बताई और कहा कि इस बालक को आगे गाँव से बाहर किसी और अच्छे स्कूल में पढ़ाओ।


के० पी० अनमोल- अच्छा, साहित्य की ओर कब और कैसे आना हुआ?
डॉ० राकेश जोशी- साहित्य और कविता के सबसे पहले संस्कार पिताजी से मिले। पिताजी रात को घर पर प्रतिदिन हम सब भाई-बहनों को पढ़ाई पूरी होने के बाद अपने पास बुलाकर बिठाते थे और 'श्रीरामचरितमानस' का सस्वर पाठ करते थे, जिसे माँ और हम सभी भाई-बहन बैठ कर सुनते थे। मुझे कुछ चौपाइयाँ बहुत अच्छी लगती थीं और उनकी धुन भी। वहाँ से कविता के संस्कार सबसे पहले मिले।

पर, स्पष्ट तौर पर साहित्य की ओर पहला झुकाव सन् 1986 में हुआ, जब मैं केंद्रीय विद्यालय, सिंगरौली (मध्यप्रदेश) में हाई स्कूल का छात्र था। वहाँ हमें एक सीधे-सादे, सहज-सरल व्यक्तित्व के स्वामी श्री बैजनाथ सुनहरे सर हिंदी पढ़ाते थे। सर ने हमें एक दिन बताया था कि वे 'बिहारी सतसई' की तर्ज पर 'सुनहरे सतसई' लिख रहे हैं। तब मुझे यह भी पता नहीं था कि कविता क्या होती है, और कविता लिखना क्या होता है। हम सभी छात्रों ने उनसे पूछा था: "सर, आप इतनी कविताएँ कैसे लिख लेते हैं?" उन्होंने कहा था: "कविताएँ तो तुम लोग भी लिख सकते हो।" फिर उन्होंने ब्लैक-बोर्ड पर लिखा: "जस्ता, दस्ता, गुलदस्ता, रस्ता", और हमसे कहा: "कल तुम सब लोग एक-एक कविता लिख कर लाओगे।" मैं घर गया। मैंने भी रात बहुत देर तक जागकर एक कविता लिखी, और अगले दिन सर को दिखाई। सर ने पूछा: "यह कविता तुमने लिखी?" मैंने कहा: "जी, सर।" सर ने कहा: "नहीं, यह तुमने नहीं लिखी।" जब मैंने फिर कहा कि "सर, मैंने लिखी है" तो उन्होंने मेरा मन रखने और मुझे प्रोत्साहित करने के लिए कहा: "बहुत अच्छा लिखा, ऐसे ही लिखते रहना।" बात आई-गई हो गई। पर, इस घटना ने शायद मेरे जीवन पर दूरगामी प्रभाव डाला। सर की बात से प्रोत्साहित होकर मैंने उस कविता के बाद एक और कविता लिखी। फिर यह सिलसिला चल निकला।

डी० ए० वी० पब्लिक स्कूल, ककरी, बीना परियोजना में इंटरमीडिएट करते हुए सन् 1988 में मेरी पहली कविता विद्यालय-पत्रिका 'आदर्श' में छपी। साहित्य में मेरी रुचि को देखते हुए पत्रिका के संपादक हमारे स्कूल के कला अध्यापक रामजीत प्रजापति सर ने मुझे पत्रिका का छात्र-संपादक बनाया था। तब से शुरू हुआ सफ़र अभी तक जारी है। बीना परियोजना में ही प्रसिद्ध कहानीकार अनवर सुहैल जी भी कार्यरत थे, वे कविताएँ भी लिखते थे। उनसे मुलाक़ात के बाद साहित्य के प्रति मेरी रुचि और बढ़ती गई और मैं हर कविता लिखने के बाद उन्हें पढ़ाता। हम प्रतिदिन उनके घर पर मिलते। वे मुझे नई-नई पत्रिकाएँ पढ़ने के लिए देते और हम देर तक साहित्य पर चर्चा करते। तब मैं बी० ए० करने लगा था। उनके कहने पर मैंने कोल इंडिया लिमिटेड की पत्रिका 'खनन भारती' में प्रकाशन के लिए कविता भेजी, जो प्रकाशित हुई।

के० पी० अनमोल- आरंभिक दौर में आपको कौनसे रचनाकारों ने प्रभावित किया और आज किन रचनाकारों से प्रेरणा पाते हैं?
डॉ० राकेश जोशी- श्रीनगर में ही जब मैं बी० ए० का विद्यार्थी था, उस दौरान सन् 1992 में हम कुछ मित्रों ने मिलकर एक साहित्यिक पत्रिका 'लौ' नाम से प्रकाशित की। मैं उसका संपादक था। बाद में, 'लौ' पत्रिका से जुड़े मेरे मित्र सुरेश भट्ट आगे की पढ़ाई के लिए इलाहाबाद गये और सन् 1993 में जब वे लौटे तो बहुत सारी किताबें लेकर लौटे। उनमें एक किताब थी, दुष्यंत कुमार की- 'साये में धूप'। उसे पढ़ते ही मुझे लगा कि शायद यही विधा है, जो मेरे लिए और मैं जिसके लिए बना हूँ। हिंदी ग़ज़ल से पहले मैं नई कविता, गीत और काव्य की अन्य विधाओं में भी लिखता रहा, पर एक बार हिंदी ग़ज़ल को पढ़ा और समझा तो फिर हिंदी ग़ज़ल का ही हो गया। दुष्यंत कुमार के बाद साहिर लुधियानवी ने भी मुझे बहुत प्रभावित किया। साहिर की ग़ज़लों, नज़्मों के अलावा उनके द्वारा हिंदी फ़िल्मों के लिए लिखे गये गीत भी मुझे बहुत प्रभावित करते हैं।

मुझे समाज में फैली विसंगतियों के साथ-साथ वंचित और संघर्षरत आम लोग लिखने के लिए प्रेरित करते हैं, जो हमेशा ही मेरी ग़ज़लों के केंद्र में होते हैं। मैं अपने आपको इन लोगों से बहुत अच्छे-से जुड़ा हुआ पाता हूँ। मुझे इनमें अपनी छवि दिखती है। समकालीन ग़ज़लकारों में मैं सभी को पढ़ता हूँ और समझने की कोशिश करता हूँ कि हिंदी ग़ज़ल किस दिशा में जा रही है। कुछ-एक नाम लेना मुश्किल है, क्योंकि कुछ नाम लेने का मतलब कुछ नाम छूट जाना है, और यह मैं नहीं चाहता।

के० पी० अनमोल- दुष्यंत-साहिर का प्रभाव, आम आदमी से जुड़ाव, शायद यही कारण है कि आपकी ग़ज़लें भी यथार्थवादी और धरातल की हैं। आप हिंदी ग़ज़ल को किस तरह परिभाषित करेंगे?
डॉ० राकेश जोशी- काव्य की अन्य विधाओं की ही तरह हिंदी ग़ज़ल भी काव्य की एक विधा है। उसका बाहरी स्वरूप, उसका आकार, यानी उसकी बनावट ग़ज़ल की है परंतु उसकी आत्मा हिंदी कविता की है- परिवेश हिंदी का है। हिंदी ग़ज़ल वंचित, दबे-कुचले निम्न मध्यम-वर्गीय लोगों के दुःख-दर्द और जीवन के संघर्षों के साथ-साथ मनुष्य की कोमल भावनाओं और इस दुनिया को बेहतर बनाने की कवि या ग़ज़लकार की उत्कट इच्छा की अभिव्यक्ति भी है परंतु आधुनिक समाज की तमाम चुनौतियों और विसंगतियों से उपजे आक्रोश को स्वर देना ही हिंदी ग़ज़ल की मूल पहचान है। हिंदी ग़ज़ल में 'समकालीनता' और 'यथार्थ' का चित्रण उसे नए तेवर देते हैं। जहाँ एक ओर हिंदी ग़ज़ल प्रकृति, धरती और आकाश के गीत भी गाती है तो दूसरी ओर आम आदमी के साथ उसके संघर्षों की सहभागी भी है। वस्तुत: हिंदी ग़ज़ल आम बोलचाल की भाषा में लिखी गई आम आदमी की कविता है। व्यापक अर्थों में, हिंदी ग़ज़ल इस दुनिया को मनुष्य के रहने लायक बनाने के सपने देखती है।

के० पी० अनमोल- हिंदी ग़ज़ल के वर्तमान परिदृश्य के वे पक्ष, जो इसे मज़बूत बनाते हैं, की बहुत अच्छी चर्चा आपने की। जानना चाहूँगा कि वे कौनसी चुनौतियाँ हैं, जिनसे हिंदी के रचनाकारों को सजग रहना है। कौनसे ऐसे बिंदु हैं, जो इसके पथ में बाधक हो सकते हैं?
डॉ० राकेश जोशी- प्रत्येक दौर में जितना कुछ अच्छा और स्तरीय साहित्य रचा जाता है, उससे कई गुना अधिक स्तरहीन साहित्य की रचना होती है। ऐसा भी नहीं है कि स्थापित और ख्याति-प्राप्त रचनाकार जो भी लिखते हैं, वह सब स्तरीय होता है। हमारे लिखे का बहुत कम अंश अच्छा और साहित्य व समाज के लिए उपयोगी होता है। और, यह बात प्रत्येक नए-पुराने रचनाकार को बहुत पहले ही समझ लेनी चाहिए। 'मैं जो लिखता हूँ वही साहित्य है'- जैसी आत्म-मुग्धता अच्छी बात नहीं है।

आज हिंदी ग़ज़ल, निस्संदेह, हिंदी काव्य की सबसे लोकप्रिय विधा है। सोशल मीडिया के युग में हर दूसरा व्यक्ति ग़ज़लकार है। सोशल मीडिया के माध्यम से रचनाओं की पहुँच बहुत ज़्यादा पाठकों तक हो गई है और पाठकों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। सोशल मीडिया पर यह देखा जा रहा है कि प्रायः, पुराने और स्थापित रचनाकार अपनी स्वयं की रचनाओं पर अधिक लाइक्स और कमेंट्स की प्रत्याशा में स्तरहीन रचनाओं पर भी बहुत अच्छे कमेंट्स कर देते हैं ताकि बदले में उन्हें भी अच्छे कमेंट्स मिलें। यह प्रवृत्ति अच्छी नहीं है, क्योंकि वे ऐसा नए रचनाकारों को प्रोत्साहित करने के लिए नहीं बल्कि अपने स्वार्थ के लिए करते हैं। इस तरह, वे हिंदी साहित्य का अहित ही कर रहे हैं।

वर्तमान में, साहित्यिक पत्रिकाओं और ई-पत्रिकाओं की भी बाढ़-सी आ गई है, इससे संपादकों की संख्या तो बहुत ज़्यादा हो गई है परंतु इसमें साहित्य की समझ रखने वाले संपादकों की संख्या बहुत कम है, जो साहित्य के लिए अच्छी बात नहीं है। जिन्हें स्वयं साहित्य की समझ नहीं है, वे कैसा साहित्य प्रकाशित करेंगे, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। इससे कई पत्रिकाओं में हिंदी ग़ज़ल के नाम पर कूड़ा-कर्कट छप रहा है।

एक और बात जो देखी जा रही है, वह यह है कि पत्रिकाएँ 'ग़ज़ल विशेषांक' थोक के भाव पर प्रकाशित कर रही हैं, और तथाकथित संपादक और अतिथि संपादक अपने कुछ परिचितों की रचनाएँ प्रकाशित कर स्वयं को भी धन्य समझ रहे हैं और उन्हें भी धन्य महसूस करवा रहे हैं। जबकि, होना यह चाहिए कि जब भी कोई 'ग़ज़ल विशेषांक' प्रकाशित हो तो उसमें सभी समकालीन महत्त्वपूर्ण ग़ज़लकारों को शामिल किया जाना चाहिए, जिससे वह एक संपूर्ण 'ग़ज़ल विशेषांक' हो सके, और जिससे पता चले कि हिंदी ग़ज़ल किस दिशा में जा रही है। इस तरह, समझा जा सकता है कि ये 'ग़ज़ल विशेषांक' भी साहित्य का भला नहीं कर रहे हैं।

हिंदी ग़ज़ल के समीक्षकों की यह ज़िम्मेदारी है कि वे सबसे पहले स्वयं हिंदी ग़ज़ल को समझें- हिंदी ग़ज़ल के बारे में एक संकल्पना- एक ख़ाका अपने मन में रखें, और उस आधार पर निरपेक्ष रहकर रचनाओं का मूल्यांकन करें तो हिंदी ग़ज़ल के लिए बेहतर होगा।

के० पी० अनमोल- आपने बहुत बेबाकी से साहित्य और ग़ज़ल के हित की बातें रखीं। ग़ज़ल विशेषांक, संकलन अथवा आलोचना के कुछ काम- ये सभी ग़ज़ल का माहौल रचने में सहायक तो रहे ही हैं, आशा है आगे जाकर आपकी कही ज़रूरी बातें यथार्थ होती दिखें हमें। फ़िलहाल यह तो माना ही जा सकता है कि नए समय में हिंदी ग़ज़ल काव्य की सभी विधाओं के शिखर पर लम्बे समय से बैठी नई कविता का स्थान लेने के ओर तेज़ी से अग्रसर है। आप का क्या मानना है?
डॉ० राकेश जोशी- हिंदी ग़ज़ल नई कविता का स्थान लेने की ओर अग्रसर नहीं है बल्कि नई कविता का स्थान लगभग ले ही चुकी है। आपने देखा होगा कि 'हंस' जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका में भी 'कविता' के अलावा 'ग़ज़ल' के लिए एक अलग स्तंभ है। यह बताता है कि हिंदी ग़ज़ल, आज हिंदी कविता की मुख्यधारा में शामिल है।

के० पी० अनमोल- यह आज के कविता-समय का यथार्थ है लेकिन बावजूद इसके हिंदी कविता की आलोचना तथा एकेडमिक कार्यों में ग़ज़ल अभी भी हाशिए पर दिखती है। आप के अनुसार वे कौनसी वजहें हैं, जिनके कारण ग़ज़ल उपेक्षित होती है अथवा की जाती है?
डॉ० राकेश जोशी- छायावादी युग में छंद-बद्ध कविताएँ लिखी गईं। इस दौर में गीत-लेखन अपने चरम पर था और गीत हिंदी कविता की सबसे लोकप्रिय विधा थी। नई कविता के आगमन के बाद छंद-बद्ध कविताएँ कम पढ़ी जाने लगीं तो इसका सबसे बड़ा कारण हास्य-व्यंग्य के नाम पर सुनाई गईं मंचीय कविताएँ या चुटकुले हैं, जिनके कारण छंद का महत्त्व कम हुआ और इसकी प्रतिष्ठा कम हुई, वर्ना आप तो जानते ही हैं कि एक समय देश के सभी बड़े और प्रमुख कवि मंच पर कविताएँ सुनाते थे, जो विशुद्ध साहित्यिक कविताएँ होती थीं, और उनके श्रोता भी बहुत ज़्यादा थे। भले ही कुछ लोगों को ऐसा महसूस होता हो कि हिंदी ग़ज़ल उपेक्षित है या उपेक्षित की जा रही है परंतु वास्तविकता यह है कि हिंदी ग़ज़ल, हिंदी साहित्य की मुख्य-धारा की कविता बन रही है। अभी बहुत ज़्यादा संख्या में आलोचक हिंदी ग़ज़ल के क्षेत्र में काम नहीं कर रहे हैं इसलिए आलोचना में ऐसा महसूस होता होगा परंतु एकेडमिक कार्यों में भी अब हिंदी ग़ज़ल को समुचित स्थान मिल रहा है और देश के लगभग सभी विश्वविद्यालयों में हिंदी ग़ज़ल पर शोध-कार्य हो रहे हैं।

कोई भी साहित्यिक विधा रातों-रात अपना स्थान नहीं बनाती, उसके लिए बहुत लंबे समय तक एक निश्चित उद्देश्य से लिखी गई एक निश्चित तरह की कविताएँ धीरे-धीरे साहित्यिक जगत में अपना स्थान बनाती हैं। सारे संसार के साहित्य के इतिहास का अध्ययन करने पर यह मालूम होता है कि दुनिया-भर में यही होता रहा है कि हर नई विधा को पुरानी विधा का स्थान लेने और अपने दौर की मुख्य-धारा की कविता बनने में काफी समय लगा। हिंदी ग़ज़ल को भी मुख्य-धारा की कविता बनने और पूरी तरह स्थापित होने में समय लगेगा। प्रतीक्षा कीजिए, 'गूढ़ बात को सरल शब्दों में कहने' की अपनी विशेषता के कारण हिंदी ग़ज़ल निश्चित रूप से मुख्य-धारा की कविता बन रही है। किसी के हिंदी ग़ज़ल की उपेक्षा करने से यह उपेक्षित नहीं होगी। हमें सिर्फ़ निरंतर समाज और अपने आसपास के परिवेश, देश-दुनिया पर निरंतर क़लम चलाते रहना चाहिए और यह विश्वास रखना चाहिए कि निश्चित तौर पर हिंदी ग़ज़ल को वह स्थान प्राप्त होगा, जो हिंदी साहित्य में उसे हासिल होना चाहिए।

के० पी० अनमोल- आपके कुछ लेख-भूमिकाएँ-समीक्षाएँ जो मैंने पढ़ी हैं, उसमें पाया है कि आपको साहित्य तथा अपनी विधा की बहुत अच्छी समझ है। विमर्श का आपका तरीका भी प्रभावी है। ग़ज़ल-सृजन के अलावा आपके आलोचना-विश्लेषण के क्षेत्र में काम करने को लेकर कोई संभावना है? कभी सोचा इस विषय में आपने?
डॉ० राकेश जोशी- हिंदी ग़ज़ल आलोचना के क्षेत्र में काम करने की अपार संभावनाएँ हैं क्योंकि इस क्षेत्र में बहुत कम काम हुआ है या जो भी काम हुआ है, उसमें से बहुत कम काम सिस्टमैटिक यानी सुव्यवस्थित तरीक़े से हुआ है। मैंने कुछ ग़ज़ल-संग्रहों की समीक्षाएँ लिखी तो हैं पर अभी पूर्णतया ग़ज़ल-लेखन को ही समर्पित हूँ और समीक्षा के क्षेत्र में काम करने के बारे में गंभीरता-पूर्वक कुछ सोचा नहीं है। पर चूंकि मेरे शोध यानी एम०फ़िल०, डी०फ़िल० का विषय 'अंग्रेज़ी आलोचना साहित्य' रहा है इसलिए हो सकता है कि भविष्य में कभी मैं हिंदी ग़ज़ल आलोचना के क्षेत्र में काम करता नज़र आऊँ आपको। फ़िलहाल पूरी तरह से हिंदी ग़ज़ल-लेखन के लिए समर्पित हूँ।

के० पी० अनमोल- ग़ज़ल लेखन की अपनी प्रक्रिया के विषय में कुछ बताइए।
डॉ० राकेश जोशी- ग़ज़ल-लेखन मेरे लिए एक स्वत: स्फूर्त प्रक्रिया है। ग़ज़ल-लेखन के लिए मैं किसी नियत समय पर नहीं बैठता। ग़ज़लें हर समय दिमाग़ में घूमती रहती हैं। जब अचानक ही एक साथ कई-कई मिसरे दिमाग़ में घूमने लगते हैं तो मैं उन सभी को मोबाइल पर बोलकर टाइप कर लेता हूँ। अधिकांशतः मेरी ग़ज़लें एक ही सिटिंग में पूरी हो जाती हैं, मुझे किसी भी ग़ज़ल को पूरा करने के लिए दोबारा नहीं बैठना पड़ता। विद्यार्थी-जीवन की यानी मेरे शुरुआती दौर की लगभग सभी ग़ज़लें आधी रात के बाद लिखी गई हैं। जब मैं पढ़ते-पढ़ते थक जाता था तो सोने से पहले दिमाग़ में कविताएँ घूमने लगती थीं और मैं उन्हें पन्नों पर उतार लेता था। कई बार रात में सोने के बाद नींद से अचानक जगकर भी मैंने अनेक ग़ज़लें लिखी हैं। अब तो कई बार मैं कई-कई महीनों, कई-कई वर्षों तक बिल्कुल नहीं लिखता; और कई बार ख़ूब लिखता हूँ। मेरा यह मानना है कि काव्य-लेखन एक ईश्वरीय वरदान है, और मुझे लगता है कि हम स्वयं कुछ नहीं लिखते बल्कि कोई शक्ति है, जो हमसे लिखवाती है।

के० पी० अनमोल- आपके लेखन में आम आदमी या कहूँ समाज की अंतिम पंक्ति की चिंताएँ हमेशा मौजूद रही है। क्या पिछले कुछ समय में उसी आम आदमी की मानसिकता में कुछ बदलाव अनुभव करते हैं? क्या आपको नहीं लगता कि हमारे समाज का साधारण आदमी अधिक स्वार्थी अथवा लापरवाह हुआ है?
डॉ० राकेश जोशी- हर लेखक या कवि के लेखन में समाज के अंतिम पंक्ति के व्यक्ति की चिंताएँ मौजूद रहनी चाहिए। आपने बिलकुल सही कहा कि आम आदमी की मानसिकता में बीते कुछ दशकों में बहुत बदलाव हुआ है। आदमी अब बहुत आत्म-केंद्रित और स्वार्थी हो गया है, जो कि एकाकी परिवारों के चलन, मशीनी-कंप्यूटर युग, गाँवों से क़स्बों और शहरों की ओर पलायन, तेज़ी से बढ़ती जनसंख्या, अमीर और ग़रीब के बीच बढ़ता अंतर, जीवन के हर क्षेत्र में बढ़ती प्रतिस्पर्द्धा जैसे कारकों के कारण हुआ है। साहित्य की चाहे कोई भी विधा हो, लेखन को आम आदमी की आवाज़ बनना चाहिए। आम आदमी के सर पर हाथ रखकर प्यार से पुचकारना चाहिए। उसे सीने से लगा लेना चाहिए। उसके साथ जीवन के हर संघर्ष में खड़ा दिखना चाहिए तभी लेखन की सार्थकता है। हिंदी ग़ज़ल यह काम बा-ख़ूबी कर रही है पर अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाक़ी है। इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि बहुत कम हुआ है और बहुत ज़्यादा बाक़ी है।
जब मैं यह बात कर रहा हूँ तो मैं कोई आदर्शवादी या भावनात्मक बात नहीं कर रहा बल्कि यथार्थ की भूमि पर खड़ा होकर यथार्थ की बात कर रहा हूँ। साहित्य का समाज से अलग कोई अस्तित्व नहीं है, यह बात हर लेखक को समझ लेनी चाहिए।

के० पी० अनमोल- 'साहित्य का समाज से अलग कोई अस्तित्व नहीं है।' बहुत बढ़िया। लेकिन उस आम अथवा अंतिम आदमी, जिसकी चिंताएँ साहित्य में हैं, उससे साहित्य पूरी तरह दूर नज़र आता है। धरातल पर देखें तो जीवन के आसपास साहित्य अब कहीं नहीं दिखता। आपके अनुसार वे क्या कारण है, जिनसे सामान्य आदमी साहित्य से दूर हो गया है और उसे पुनः साहित्य से जोड़ने के क्या उपाय हो सकते हैं?
डॉ० राकेश जोशी- आपके प्रश्न का उत्तर आपके प्रश्न में ही निहित है कि "जीवन के आसपास साहित्य अब नहीं दिखता" यानी आज के दौर का ज़्यादातर साहित्य न तो जीवन के आसपास है और न ही जीवन; साहित्य के आसपास बल्कि यूँ कहें कि अधिकांश साहित्य में जीवन ही नहीं है और अधिकांश साहित्य जीवन से बहुत दूर है। साहित्य में सामान्य या आम आदमी का संघर्ष और उसकी आकांक्षाएँ अभिव्यक्त नहीं हो रही हैं। दुनिया इतनी तेज़ी से बदल रही है कि हर रोज़ की भागम-भाग में साहित्य पढ़ने के लिए आम आदमी के पास समय नहीं है। आम आदमी अपनी रोज़मर्रा की ज़रूरतें पूरी करने में ही व्यस्त रहता है। और ऐसा नहीं है कि इस दौर में ही आम आदमी साहित्य से दूर है बल्कि एक पाठक के तौर पर वह आदमी, जिसकी चिंताएँ साहित्य में हैं, कभी भी साहित्य का पाठक नहीं रहा। साहित्य पढ़ने वाले हर युग में चुनिंदा लोग ही होते हैं और जो साहित्य पढ़ते हैं, वे आज भी पढ़ते हैं।

पहले साहित्य के अलावा अन्य माध्यम नहीं थे। संचार-क्रांति के कारण अनेक मनोरंजन और ज्ञानवर्द्धन के साधन ऑनलाइन उपलब्ध हैं। लोग सरल माध्यम चुनते हैं, इसीलिए सोशल मीडिया पर वीडियोज़ की बाढ़ आ गई है। आज के दौर में साहित्य अब ऑनलाइन ज़्यादा पढ़ा जाने लगा है, भले ही यह भी एक सर्वमान्य सत्य है कि ऑनलाइन माध्यम किताबों का स्थान पूरी तरह कभी नहीं ले सकता। मैं इसे अलग तरीक़े से देखता हूँ और यह मानता हूँ कि अच्छा और स्तरीय साहित्य आज भी रचा जा रहा है- जीवन से जुड़ा साहित्य भी रचा जा रहा है- उत्कृष्ट साहित्य की रचना भी हो रही है- पाठक आज भी हैं, सिर्फ़ हमारा देखने का नज़रिया बदला है। सामान्य व्यक्ति को पुनः साहित्य से जोड़ने की बात नहीं है- अच्छा लिखा जाएगा तो अवश्य पढ़ा जाएगा। यह बात तो हमको माननी ही पड़ेगी कि सोशल मीडिया के कारण साहित्य की पहुँच या 'रीच' बहुत ज़्यादा हो गई है और पाठकों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है।

के० पी० अनमोल- यानी लेखक को आम आदमी के जीवन के और क़रीब तक जाकर, उसे और गहराई से अनुभव कर साहित्य सृजन करना होगा। तब वह भी साहित्य से ख़ुद को या ख़ुद से साहित्य को जुड़ा हुआ अनुभव करेगा।
आपसे बहुत अच्छी चर्चा हुई। आपके विचारों-मान्यताओं से परिचय हुआ, आपकी दृष्टि और दृष्टिकोण को जानना हुआ। आशा है आपके अनुभव का लाभ साहित्य और ग़ज़ल के पाठकों को भी मिलेगा, उन्हें अच्छा लगेगा। अपना क़ीमती समय देने के लिए आपका हार्दिक आभार।
डॉ० राकेश जोशी- आपके साथ हिंदी ग़ज़ल पर सार्थक परिचर्चा हुई। आपको मेरी तरफ़ से शुभकामनाएँ और धन्यवाद।

0 Total Review

Leave Your Review Here

रचनाकार परिचय

के० पी० अनमोल

ईमेल : kpanmol.rke15@gmail.com

निवास : रुड़की (उत्तराखण्ड)

जन्मतिथि- 19 सितम्बर
जन्मस्थान- साँचोर (राजस्थान)
शिक्षा- एम० ए० एवं यू०जी०सी० नेट (हिन्दी), डिप्लोमा इन वेब डिजाइनिंग
लेखन विधाएँ- ग़ज़ल, दोहा, गीत, कविता, समीक्षा एवं आलेख।
प्रकाशन- ग़ज़ल संग्रह 'इक उम्र मुकम्मल' (2013), 'कुछ निशान काग़ज़ पर' (2019), 'जी भर बतियाने के बाद' (2022) एवं 'जैसे बहुत क़रीब' (2023) प्रकाशित।
ज्ञानप्रकाश विवेक (हिन्दी ग़ज़ल की नई चेतना), अनिरुद्ध सिन्हा (हिन्दी ग़ज़ल के युवा चेहरे), हरेराम समीप (हिन्दी ग़ज़लकार: एक अध्ययन (भाग-3), हिन्दी ग़ज़ल की पहचान एवं हिन्दी ग़ज़ल की परम्परा), डॉ० भावना (कसौटियों पर कृतियाँ), डॉ० नितिन सेठी एवं राकेश कुमार आदि द्वारा ग़ज़ल-लेखन पर आलोचनात्मक लेख। अनेक शोध आलेखों में शेर उद्धृत।
ग़ज़ल पंच शतक, ग़ज़ल त्रयोदश, यह समय कुछ खल रहा है, इक्कीसवीं सदी की ग़ज़लें, 21वीं सदी के 21वें साल की बेह्तरीन ग़ज़लें, हिन्दी ग़ज़ल के इम्कान, 2020 की प्रतिनिधि ग़ज़लें, ग़ज़ल के फ़लक पर, नूर-ए-ग़ज़ल, दोहे के सौ रंग, ओ पिता, प्रेम तुम रहना, पश्चिमी राजस्थान की काव्यधारा आदि महत्वपूर्ण समवेत संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित।
कविता कोश, अनहद कोलकाता, समकालीन परिदृश्य, अनुभूति, आँच, हस्ताक्षर आदि ऑनलाइन साहित्यिक उपक्रमों पर रचनाएँ प्रकाशित।
चाँद अब हरा हो गया है (प्रेम कविता संग्रह) तथा इक उम्र मुकम्मल (ग़ज़ल संग्रह) एंड्राइड एप के रूप में गूगल प्ले स्टोर पर उपलब्ध।
संपादन-
1. ‘हस्ताक्षर’ वेब पत्रिका के मार्च 2015 से फरवरी 2021 तक 68 अंकों का संपादन।
2. 'साहित्य रागिनी' वेब पत्रिका के 17 अंकों का संपादन।
3. त्रैमासिक पत्रिका ‘शब्द-सरिता’ (अलीगढ, उ.प्र.) के 3 अंकों का संपादन।
4. 'शैलसूत्र' त्रैमासिक पत्रिका के ग़ज़ल विशेषांक का संपादन।
5. ‘101 महिला ग़ज़लकार’, ‘समकालीन ग़ज़लकारों की बेह्तरीन ग़ज़लें’, 'ज़हीर क़ुरैशी की उर्दू ग़ज़लें', 'मीठी-सी तल्ख़ियाँ' (भाग-2 व 3), 'ख़्वाबों के रंग’ आदि पुस्तकों का संपादन।
6. 'समकालीन हिंदुस्तानी ग़ज़ल' एवं 'दोहों का दीवान' एंड्राइड एप का संपादन।
प्रसारण- दूरदर्शन राजस्थान तथा आकाशवाणी जोधपुर एवं बाड़मेर पर ग़ज़लों का प्रसारण।
मोबाइल- 8006623499