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कम शब्दों में बात कहने की आदत ने ग़ज़ल कहने की ओर अग्रसर किया: ऋषिपाल धीमान

कम शब्दों में बात कहने की आदत ने ग़ज़ल कहने की ओर अग्रसर किया: ऋषिपाल धीमान

अपनी ग़ज़लों में यथार्थपरकता तथा पारंपरिकता का अच्छा संगम करने वाले, लोक सम्पृक्त रचनाधर्मिता के साथ हिन्दी की ग़ज़लों को सँवारने वाले प्रतिष्ठित ग़ज़लकार ऋषिपाल धीमान जी से के० पी० अनमोल की एक बातचीत आप सभी पाठकों के लिए प्रस्तुत है। धीमान जी माधोपुर (रुड़की) की उपज हैं तथा अहमदाबाद (गुजरात) में व्यवस्थित हैं। इनके अब तक कुल 5 ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं तथा ये हिन्दी साहित्य अकादमी, गुजरात से सम्मानित भी हो चुके हैं।

के० पी० अनमोल- आपका जन्म माधोपुर (रुड़की) का है और शोधकार्य तक की पढ़ाई रुड़की विश्वविद्यालय से हुई है। बचपन, परिवार और अध्ययन काल की क्या स्मृतियाँ हैं ज़ेह्न में?
ऋषिपाल धीमान- बचपन की तो इतनी स्मृतियाँ हैं कि उनको समेटने में तो एक पुस्तक की रचना हो जाए। हमारा एक किसान परिवार था। खेती के उस दौर की यादें हैं, जब यान्त्रीकरण नहीं हुआ था। घर में गाय, बैल, भैंस थे। बैलों के हल से जुताई होती थी। गेहूँ की कटाई के बाद दाँय चलाकर अर्थात् गेहूँ के पौधों के ढेर पर बैलों को लगातार गोल-गोल चलाकर गेहूं को भूसे में परिवर्तित किया जाता था। फिर भूसे और गेहूँ के दाने अलग-अलग किये जाते थे। बाद में यही काम थ्रैशर से होने लगा। हम बच्चे पल्ले में गेहूँ भरकर गाँव की किसी दुकान पर ले जाते और गेहूँ के बदले खट्टी-मीठी गोलियाँ खरीदते थे। शीतकाल में गन्ने चूसना तो नित्यकर्म जैसा था। पाती (ईख की सूखी पत्तियाँ) और पुराली से कुत्ते के पिल्लों के लिए घर बनाना भी सर्दियों में अक्सर होता था। सर्दियों में सूखी पत्तियाँ जलाकर आग के इर्द-गिर्द बैठकर बच्चे अपने-अपने ननिहाल के किस्से सुनाते थे। कंच्चे और गिल्ली-डंडा खेलना ख़ूब याद आता है। गाँव में एक प्राइमरी पाठशाला थी, जहाँ टाट कम ही था इसलिए हम बच्चे अपनी-अपनी बोरी लेकर स्कूल जाते थे बैठने के लिए। अनवर मास्टर जी की रौबदार आवाज़ आज भी गूँजती-सी लगती है। वे डाँटते भी बहुत थे लेकिन पढ़ाते भी ग़ज़ब का थे। किसी ने उच्चारण ग़लत किया नहीं कि बेंत से सुताई। घर में अलग से तो कोई पढ़ने की जगह नहीं मिलती थी इसलिए खेतों में जाकर अक्सर पढ़ा करता था। मिट्टी तेल की ढिबरी और बाद में लैंप में ही पढ़ाई होती थी। पढ़ने में होशियार होने के कारण मैं मास्टरजी का प्रिय रहता था।

पाँचवीं से आगे की पढ़ाई रुड़की में हुई। पैदल ही जाना होता था। बरसात के दिनों में तो पतलून हाथ में लेकर ही गाँव से पार जाना होता था, जिसे शहर के पास जाकर हम पहनते थे। जब मैं नवीं कक्षा में आया तब साइकिल मिली थी- रैले कंपनी की, जो मुझे बहुत प्रिय थी और मेरे साथ पी एचडी के समय तक रही।
पिताजी सेना में थे। उनकी चिट्ठियों और मनीऑर्डर के इंतज़ार में डाकिये की राह देखना नियम-सा था। डाकिया जब भी गाँव में आता, वह हमारे घर पर खाना खाकर या चाय पीकर अवश्य जाता था। जीवन की सबसे पहली चिट्ठी माँ के निर्देशन में पिताजी को ही लिखी थी, जब मैं कक्षा चार में पढ़ता था। जब आठवीं में था तब पिताजी मेरे लिए मिल्ट्री कैंटीन से रेडियो लाए थे। वह फिलिप्स पायोनियर रेडियो मुझे बहुत प्रिय था और हमेशा मेरे साथ रहा।

पिताजी के पिताजी तो उनके बचपन में ही चल बसे थे, इसलिए उनके चाचाजी श्री रूपचंद ने ही घर सँभाला था। वे गाँव के सबसे पढे-लिखे व्यक्ति थे। गाँव वाले उन्हें बाबूजी कहते थे और हम बाबाजी। वे सरकारी वर्कशॉप में हैडक्लर्क थे और हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी तीनों भाषाओं में निपुण थे। उनकी लिखाई बहुत सुंदर थी। बचपन में मेरी लिखाई अच्छी नहीं थी। उनके कहने पर एक दिन सुबह से शाम तक मैं लिखता ही रहा और मेरी लिखाई सुंदर हो गयी। मेरा काफ़ी समय उन्हीं के पास बीतता था। मेरी ज्ञान की जिज्ञासाएँ अक्सर वे ही पूरा करते थे। वे ‘कल्याण’ पत्रिका और गीताप्रेस गोरखपुर की ज्ञानवर्धक पुस्तकें मँगाया करते थे, जिन्हें पढ़ने में मुझे भी बहुत रस आता था।

के० पी० अनमोल- वाह्ह! आपने बचपन शिद्दत से जिया है इसीलिए शायद परिवार, रिश्ते-नातों की उपस्थिति तथा स्मृतियों की गूँज आपकी ग़ज़लों में बराबर बनी रहती है। क्या यह अपनों और अपने परिवेश से दूर होने के कारण मुखर दिखती है?
ऋषिपाल धीमान- दरअस्ल मैंने संयुक्त परिवार जिया है, जहाँ सबके सुख-दुख साझा होते थे। ताई-ताऊ, चाची-चाचा, बुआ-फूफा सभी का स्नेह माँ-बाप से बढ़कर मिला था। कौन सगा है, कौन नहीं, किसको पता चलता था! परिवार की क्या कहिए, मुहल्ले और गाँवभर के लोगों से ताई, चाची, बाबा, दादी, भाई, बहन, बुआ या भाभी का रिश्ता रहता था। रिश्तों की वह गर्माहट आज भी ज़ह्न में महफ़ूज़ है। रोज़ी-रोटी के सिलसिले में गाँव-घर से दूर रहना पड़ा और रिश्तों का वह संसार भी छूट गया। यह दर्द अक्सर मेरी ग़ज़लों में बयां होता रहता है।

के० पी० अनमोल- लेखन की तरफ झुकाव कैसे और क्यूँ हुआ? आरम्भिक समय में कौनसे रचनाकारों एवं परिस्थितियों ने इस काम में सहयोग किया?
ऋषिपाल धीमान- बालपन में पढ़ी गयी कविताएँ जैसे ‘उठो लाल अब आँखें खोलो’, ‘ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी’, ‘मानस हो तो वह रसखान’ आदि बहुत भाती थीं। मुझे फिल्मी गीत बहुत पसंद आते थे। मेरे बचपन और लड़कपन के दौर में जो साहिर, मजरूह, शैलेंद्र, राजेंद्र कृष्ण, प्रदीप, इंदीवर, आनंद बक्षी आदि गीतकारों के लिखे फिल्मी गीत होते थे, वे उच्च कोटि की कविता थे। गाँव में अक्सर कव्वाल आया करते थे, जो ग़ज़लें भी गाते थे, जो प्रभावित करती थीं। रेडियो सुनने का भी मुझे बहुत शौक रहा है। रेडियो पर प्रसारित होने वाले कवि-सम्मेलन और मुशायरे सुना करता था और पसंद करता था। कुंदनलाल सहगल और मुहम्मद रफ़ी मेरे प्रिय गायक रहे हैं। सहगल साहब की गायी ग़ज़लें मुझे बहुत पसंद आती थीं। ‘ज़ौक़’ और ‘ग़ालिब’ की ओर सहगल साहब के कारण झुकाव हुआ। जिन्हें मैंने पढ़ा। गाँव में एक शायर थे इब्राहिम भाई, जिनकी किराने की दुकान थी। मैं अक्सर उनके पास बैठा करता था और अपनी टूटी-फूटी रचनाएँ उन्हें सुना दिया करता था। कभी-कभी वे कोई विषय भी दे दिया करते थे शेर कहने के लिए। एक बार उन्होंने एक शेर सुनाया और कहा इस शेर का जवाब महबूबा की तरफ से एक घंटे में कहके लाओ। उन्होंने जो शेर सुनाया था वह यह था-

अगर मुझसे मुहब्बत है, मेरी आग़ोश में आओ
मुझे हीले-बहाने से बड़ी तकलीफ़ होती है

मैंने जो इसके जवाब में कहके उन्हें सुनाया था, वह कुछ यूँ था-

है प्यार मेरा सच्चा, कहानी तो नहीं है
आग़ोश में आऊँ ये ज़रूरी तो नहीं है

के० पी० अनमोल- अहा! यानी ग़ज़ल आरम्भ से ही आपके साथ रही है। ग़ज़ल आपकी विशेष विधा बनी। ग़ज़ल ही क्यूँ?
ऋषिपाल धीमान- शुरू-शुरू में कवि-सम्मेलनों में सुनकर हास्य-कविताएँ भी अच्छी लगती थीं और मैं हास्य-कविताएँ भी लिखता था लेकिन अनायास ही ग़ज़ल ने दामन थाम लिया। ग़ज़ल वास्तव में क्या होती है, इसका तो कुछ अता-पता नहीं था लेकिन इसके प्रारूप में लिखता था और दोस्तों को सुनाता था। दोस्तों को मेरी ग़ज़लें (या कहें ग़ज़लनुमा रचनाएँ) काफ़ी पसंद आती थीं। शायद मेरी कम शब्दों में बात कहने की आदत ने ग़ज़ल कहने की ओर अग्रसर किया।

के० पी० अनमोल- ग़ज़ल को सीखने और साधने के शुरूआती समय में किससे और कहाँ-कहाँ से सहयोग मिला? अपने उस्तादे-मोहतरम से किस तरह मिलना हुआ, किस तरह सीखने का सिलसिला आगे बढ़ा?
ऋषिपाल धीमान- मैं तो ग़ज़ल की कोई जानकारी लिए बिना यूँ ही लिख रहा था और संयोग से काफ़ी ग़ज़लें बहर में हो जाती थीं। ग़ज़ल के गुण-दोष, तग़ज़्ज़ुल का कोई ज्ञान नहीं था। एक पत्रिका संभवत: अशोक अंजुम की ‘प्रयास’ में उस्ताद ‘ख़्वाब’ अकबराबादी जी की पुस्तक ‘ग़ज़ल के छंद तथा नियम’ के बारे में पढ़ा तो मैंने वह पुस्तक मँगाई। उसे पढ़कर ग़ज़ल की कुछ बारीकियों के बारे में पता चला। मैंने अपनी कुछ ग़ज़लें ‘ख़्वाब’ साहब के पास भेजी। उन्होंने कहा कि आपने बहर और वज़्न को अच्छे-से साध लिया है लेकिन अभी भाषा और कहन पर काम करने की आवश्यकता है। उन्होंने जो इस्लाह की उससे शेर क्या से क्या हो गया। फिर उनसे अपना शागिर्द बनाने की गुज़ारिश की, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। उनसे रू-ब-रू मुलाक़ात तो पाँच-छ: बार ही हो सकी लेकिन फोन पर और पत्रों के माध्यम से संपर्क बना रहता था। फिर अरूज़ और शायरी की कुछ और किताबें जैसे कमाल अहमद सिद्दिकी की ‘आहंग और अरूज़‘, हाली की ‘मुकद्दमा-ए-शेरो-शायरी’, अख़लाक़ हुसैन दहलवी की ‘मीज़ाने-सुख़न’ आदि पुस्तकें भी पढ़ीं। ‘ख़्वाब’ साहब कहा करते थे कि आपका ग़ज़ल कहने का अंदाज़ एकदम नया है, जो आपको एक अलग पहचान देगा।

के० पी० अनमोल- और उनका कहा सच भी हुआ। अच्छा, ग़ज़ल और हिन्दी ग़ज़ल में किस समय फ़र्क समझ में आया? आपके हिन्दी ग़ज़ल को चुनने के पीछे क्या कारण रहे?
ऋषिपाल धीमान- देखिए मैं तो बिना हिन्दी-उर्दू का फ़र्क किए ग़ज़लें कह रहा था। ज़ौक, ग़ालिब, मीर, फ़िराक़, साहिर, नूर लखनवी, बशीर बद्र आदि उर्दू के शायरों को पढ़ा और नीरज, दुष्यंत, बालस्वरूप राही, शेरजंग गर्ग, भवानीशंकर, नरेंद्र वशिष्ठ, उर्मिलेश आदि को भी पढ़ा। अपने तीसरे ग़ज़ल-संग्रह तक तो तरकीबों और इज़ाफ़तों का प्रयोग ख़ूब किया लेकिन बाद में इनके प्रयोग को कम से कम करने की कोशिश की। सामाजिक सरोकारों की ओर पहले भी ध्यान था लेकिन ‘जो छूना चाहूँ तो..’ के बाद इस ओर अधिक ध्यान देने लगा। वैसे देखें तो बोलचाल की भाषा में कही गयी ग़ज़लों में हिंदी और उर्दू का अंतर कम ही रह जाता है। मैं क्योंकि हिंदी का का ही कवि हूँ इसलिए हिंदी ग़ज़ल को ही चुनना था। मैंने प्रतीक भी हमेशा भारतीय ही लिए हैं।

के० पी० अनमोल- आपकी ग़ज़लों में हिन्दी कविता के स्वभाव की सरोकार संपन्नता तथा उसका परिवेश मिलता है तो इधर ग़ज़ल की पारंपरिक नज़ाकत का स्वभाव भी। यथार्थवादिता तथा ग़ज़लियत के बीच अच्छा संतुलन दिखता है आपकी रचनाओं में। यह सायास है अथवा अनायास?
ऋषिपाल धीमान- मेरा मानना रहा है कि ग़ज़ल में चाहे हुस्नो-इश्क़ की बातें हों या समाज की या जीवन-दर्शन की लेकिन ग़ज़ल की स्वभाविक मूल कोमलता बरकरार रहनी चाहिए। प्रेम ग़ज़ल का सर्वाधिक लोकप्रिय विषय रहा है। आज भले ही दुनिया-जहान के तमाम विषय ग़ज़ल में अभिव्यक्ति पा रहे हैं लेकिन प्रेम केंद्र में हमेशा रहेगा। यह प्रेम सार्वभौमिक है। अगर हमेशा सामाजिक विसंगतियों का ही रोना रोएँगे तो ग़ज़ल को भी नई कविता की तरह नीरस और बे-जान होते देर न लगेगी। दूसरे, ग़ज़ल को कठोर कहन पसंद नहीं आता इसलिए ग़ज़ल की कोमलता को बचाए रखने की चेष्टा करता रहता हूँ।

के० पी० अनमोल- बहुत सही कहा आपने और शायद इसीलिए गीत-ऋषि एवं दुष्यन्त पूर्व हिन्दी ग़ज़ल की आधारशिलाओं में एक गोपालदास नीरज जी ने आपकी ग़ज़लों की प्रशंसा की है। इधर हिन्दी ग़ज़ल के प्रतिष्ठित नाम कुंअर बेचैन साहब तथा बालस्वरूप राही जी भी आपकी ग़ज़लों से प्रभावित रहे हैं। कैसा अनुभव रहा ग़ज़ल के सफ़र का?
ऋषिपाल धीमान- हिन्दी ग़ज़ल के महत्वपूर्ण हस्ताक्षरों का स्नेह निसंदेह मुझे प्राप्त हुआ है। दूसरे ग़ज़ल-संग्रह ‘हवा के काँधे पे’ के प्रकाशन से पहले एक बार महेसाणा और अहमदाबाद के दो कवि-सम्मेलनों में पहली बार कुँवर बेचैन साहब के साथ मंच साझा करने का अवसर मिला। तभी मैंने उनसे अपने आगामी ग़ज़ल-संग्रह की भूमिका लिखने का अनुरोध किया, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। उन्होंने पुस्तक की विस्तृत भूमिका लिखी। उसके बाद ‘जो छूना चाहूँ तो’ और ‘तस्वीर लिख रहा हूँ’ की भूमिकाएँ भी उन्होंने लिखी। फोन पर भी मेरी ग़ज़लों की तारीफ़ किया करते थे। गोपालदास नीरज जी को बचपन से मंचों पर ख़ूब सुना लेकिन कभी मिलने का सौभाग्य नहीं मिल पाया। अपनी नई पुस्तक पर उनके आशीषवचन के लिए उसकी पांडुलिपि उन्हें भेजी और उनकी प्रतिक्रिया की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहा था। दस-पंद्रह दिन बाद एक दिन मैं पत्नी के साथ गाड़ी चलाकर कहीं से रहा था तभी अज्ञात नंबर से मोबाइल पर कॉल आयी, जिसे मेरी पत्नी रजनी ने उठाया। रजनी बोली अलीगढ़ से कोई नीरज बोल रहे हैं। मैंने तुरंत उनके हाथ से मोबाइल लिया और गाड़ी सड़क के एक तरफ लगा ली। मैं तो रोमांचित था कि जिनको मंचों पर सुन-सुनकर हम बड़े हुए आज उनसे बात हो पा रही है। नीरज जी कहने लगे "भाई तुम्हारी ग़ज़लें मुझे बहुत पसंद आयीं। जो मुझे लिखना था वह तो मैं लिखकर डाक से भेज चुका हूँ, लेकिन तुमसे बात किए बिना रहा नहीं गया। तुम्हारी ग़ज़लें हिंदी के नये ग़ज़लकारों के लिए उदाहरण बनेंगी।" मैंने कहा आपका आशीर्वाद मेरे लिए किसी पुरस्कार से कम नहीं। इसी तरह एक दिन शेरजंग गर्ग साहब का फोन आया। कहने लगे भाई तुम्हारी कुछ ग़ज़लें कहीं पढ़ने को मिलीं, तबीयत ख़ुश हो गयी। मेरे बारे में पूछने लगे। जब मैंने बताया कि मैं तकनीकी आदमी हूँ और नौकरी के सिलसिले में असम, त्रिपुरा आदि जगहों पर जाता रहता हूँ तो कहने लगे भाई तुम ग़ज़ल के साथ-साथ गद्य भी लिखो, ख़ासकर संस्मरण क्योंकि तुम्हारे अनुभव बहुत हैं। ‘जो छूना चाहूँ तो’ की भूमिकाओं के लिए जब मैंने पांडुलिपियाँ प्रसिद्ध शायर जनाब राजेंद्रनाथ रहबर साहब और श्री सुरेशचंद्र 'शौक़' साहब को भेजीं तो उनसे यह भी गुज़ारिश की कि भूमिका के साथ-साथ आप ग़ज़लों की इस्लाह भी कर दीजिएगा। कुछ दिनों के बाद रहबर साहब और शौक़ साहब दोनों ने कहा भाई ऋषि जी आपकी ग़ज़लों पर हमको जो लिखना था, वह लिख दिया है और रही इस्लाह की बात सो आपको किसी की इस्लाह की दरकार नहीं है। इन दोनों अज़ीम शायरों से बाद में भी बात होती रही और इनका प्रेम मुझे मिलता रहा। यह मेरा दुर्भाग्य रहा कि नीरज जी, रहबर साहब और शौक़ साहब से कभी रू-ब-रू नहीं मिल पाया, जिसका अफ़सोस मुझे जीवन भर रहेगा।

इसी तरह एक दिन अचानक बालस्वरूप राही साहब का फोन आया। मैं तो चकित था इतने बड़े ग़ज़लकार का फोन पाकर। राही जी कहने लगे ऋषिपाल जी ‘साहित्य-अमृत’ पत्रिका में तुम्हारी ग़ज़ल पढ़ी, तबीयत ख़ुश हो गयी। क्या बेहतरीन लिखते हो तुम। मैंने कहा सर आपकी ग़ज़लें पढ़-पढ़कर तो हमने ग़ज़ल कहना सीखा है। अब भी जब भी कहीं मेरी रचना पढते हैं, तुरंत फोन करते हैं। गत वर्ष दिल्ली जाना हुआ तो उनके दर्शन करने का सौभाग्य मिला। उनकी जीवन-यात्रा और हिंदी ग़ज़ल पर बहुत बातें हुईं।
ग़ज़ल के इन दिग्गजों का प्रेम मेरे लिए किसी पुरस्कार से कम नहीं।

के० पी० अनमोल- वाक़ई ये क्षण किसी उपलब्धि से कम नहीं।
ये बताइए, वर्तमान समय में हिन्दी ग़ज़ल को किस जगह पर पाते हैं? इसकी अब तक की यात्रा से संतुष्ट हैं? क्या और बेह्तर देखना चाहते हैं?
ऋषिपाल धीमान- हिन्दी ग़ज़ल इस समय दुष्यंत की बात कि 'मैं सुन रहा हूँ हर इक सिम्त से ग़ज़ल यारो' को चरितार्थ कर रही है। इतनी संख्या में सही ग़ज़ल कहने वाले हिन्दी ग़ज़ल में कभी नहीं रहे। हिन्दी ग़ज़ल उर्दू के प्रभाव से मुक्त होकर अपनी एक पहचान बनाने में काफ़ी हद तक सफल हो पाई है। स्थिति संतोषजनक है लेकिन अभी बहुत कुछ होना बाक़ी है। हिंदी साहित्य में अभी इसको वह स्थान नहीं मिल पाया है, जिसकी यह अधिकारी है। बहुतायत में किसी विधा में लिखा जाना विधा की लोकप्रियता को तो अवश्य दर्शाता है लेकिन अनाप-शनाप रचनाओं में से सही रचना चुनना कठिन हो जाता है।

के० पी० अनमोल- सहमत हूँ आपसे। और इस हेतु संपादकों के कंधों पर बड़ी ज़िम्मेदारी है। आशा करते हैं हिन्दी ग़ज़ल हिन्दी के साहित्य परिसर में भी जल्द अपना स्थान निर्धारित करेगी। हमें समय देने के लिए आपका धन्यवाद। शुभकामनाएँ।

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रचनाकार परिचय

के० पी० अनमोल

ईमेल : kpanmol.rke15@gmail.com

निवास : रुड़की (उत्तराखण्ड)

जन्मतिथि- 19 सितम्बर
जन्मस्थान- साँचोर (राजस्थान)
शिक्षा- एम० ए० एवं यू०जी०सी० नेट (हिन्दी), डिप्लोमा इन वेब डिजाइनिंग
लेखन विधाएँ- ग़ज़ल, दोहा, गीत, कविता, समीक्षा एवं आलेख।
प्रकाशन- ग़ज़ल संग्रह 'इक उम्र मुकम्मल' (2013), 'कुछ निशान काग़ज़ पर' (2019), 'जी भर बतियाने के बाद' (2022) एवं 'जैसे बहुत क़रीब' (2023) प्रकाशित।
ज्ञानप्रकाश विवेक (हिन्दी ग़ज़ल की नई चेतना), अनिरुद्ध सिन्हा (हिन्दी ग़ज़ल के युवा चेहरे), हरेराम समीप (हिन्दी ग़ज़लकार: एक अध्ययन (भाग-3), हिन्दी ग़ज़ल की पहचान एवं हिन्दी ग़ज़ल की परम्परा), डॉ० भावना (कसौटियों पर कृतियाँ), डॉ० नितिन सेठी एवं राकेश कुमार आदि द्वारा ग़ज़ल-लेखन पर आलोचनात्मक लेख। अनेक शोध आलेखों में शेर उद्धृत।
ग़ज़ल पंच शतक, ग़ज़ल त्रयोदश, यह समय कुछ खल रहा है, इक्कीसवीं सदी की ग़ज़लें, 21वीं सदी के 21वें साल की बेह्तरीन ग़ज़लें, हिन्दी ग़ज़ल के इम्कान, 2020 की प्रतिनिधि ग़ज़लें, ग़ज़ल के फ़लक पर, नूर-ए-ग़ज़ल, दोहे के सौ रंग, ओ पिता, प्रेम तुम रहना, पश्चिमी राजस्थान की काव्यधारा आदि महत्वपूर्ण समवेत संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित।
कविता कोश, अनहद कोलकाता, समकालीन परिदृश्य, अनुभूति, आँच, हस्ताक्षर आदि ऑनलाइन साहित्यिक उपक्रमों पर रचनाएँ प्रकाशित।
चाँद अब हरा हो गया है (प्रेम कविता संग्रह) तथा इक उम्र मुकम्मल (ग़ज़ल संग्रह) एंड्राइड एप के रूप में गूगल प्ले स्टोर पर उपलब्ध।
संपादन-
1. ‘हस्ताक्षर’ वेब पत्रिका के मार्च 2015 से फरवरी 2021 तक 68 अंकों का संपादन।
2. 'साहित्य रागिनी' वेब पत्रिका के 17 अंकों का संपादन।
3. त्रैमासिक पत्रिका ‘शब्द-सरिता’ (अलीगढ, उ.प्र.) के 3 अंकों का संपादन।
4. 'शैलसूत्र' त्रैमासिक पत्रिका के ग़ज़ल विशेषांक का संपादन।
5. ‘101 महिला ग़ज़लकार’, ‘समकालीन ग़ज़लकारों की बेह्तरीन ग़ज़लें’, 'ज़हीर क़ुरैशी की उर्दू ग़ज़लें', 'मीठी-सी तल्ख़ियाँ' (भाग-2 व 3), 'ख़्वाबों के रंग’ आदि पुस्तकों का संपादन।
6. 'समकालीन हिंदुस्तानी ग़ज़ल' एवं 'दोहों का दीवान' एंड्राइड एप का संपादन।
प्रसारण- दूरदर्शन राजस्थान तथा आकाशवाणी जोधपुर एवं बाड़मेर पर ग़ज़लों का प्रसारण।
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