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प्यारचंद शर्मा 'साथी' की कविताएँ

प्यारचंद शर्मा 'साथी' की कविताएँ

प्रकृति और जीवन को अपनी अनुभवी नज़रों से देखतीं रचनाकार की ये कविताएँ बहुत सामान्य शब्दों और बिम्बों में गहन दर्शन समाहीत किये हुए हैं। यहाँ पेड़, नदी, दोपहर, मील का पत्थर आदि प्रतीक भर नहीं, बल्कि नायक बनकर उभरते हैं।

शिरीष

गंध बिखेर रहा है
गली के ओर छोर तक
आँगन-आँगन महकाता शिरीष।

अपने नथुनों में गंध भर
बौरा गई गली।

कुछ दिन अभी और गली में
भरी रहेगी गंध
झरते पुष्पों से अटी गली
पुलकित हो सहती रहेगी
नर्म-नर्म आघात।

शिरीष तले बतियाते बच्चे
बहुत उल्हासित हैं
अपने तन पर लपेटते गंध।
उड़ाते पुष्प, उड़ाते गंध
गंध भर ले जाते बच्चे।

गंध जब नहीं होगी
नहीं रहेंगे पुष्प
टंग जाएँगे अनेकों झुनझुने
टहनी-टहनी
हवाएँ बजाती गुज़रती रहेंगी।

अपने लिए नहीं रखता
कभी सहेज कर
मुट्ठी भर गंध भी
शिरीष।

**********


विस्थापन

यह कोई ज़रूरी तो नहीं
कि मैं कल भी यहीं मिलूँ
अधगड़ा सड़क की कोर।
कल भी ऐसे ही पढ़ा जाऊँ
और दिनों की तरह।
अगले गाँव का संकेतक बनकर
दूरी दर्शाता।

नदी भी अपनी राह बदलती है
कई बार
मुमकिन है यह सड़क भी
अपनी राह बदल कर
अन्यत्र कहीं से गुज़रे।
कल कौन जाने
आगे का गाँव
कहीं अन्यत्र विस्थापित हो जाए!
और वहाँ इक जंगल उगे घना
जहाँ कोई न आए-जाए।

तब संभव है कि
उखाड़ कर किसी और सड़क की
नीव में भर दिया जाऊँ
और भुला दिया जाऊँ सदा के लिए।

कल कोई अचरज नहीं
यहाँ सुर्ख फूलों से लदा
हवाओं से अठखेलियाँ करता
महकता गुलाब का पौधा दिखे।

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दुपहरी

मंथर-मंथर पवन झूलाता
टहनी-टहनी
सिंदूरी फल कई पके-पके
एक-एक कर बारी-बारी
गिरा रहा तरु मौलश्री।

चहुं ओर बिखरी नीरवता
बोरा भर।
दुर्वा की अलसाई देह,
अकुलाए श्वासों के सुर।

कुतर रही है चुन-चुन कर
इधर-उधर बिखरे फल
आतुर बड़ी गिलहरी।

घुटने-घुटने सरक-सरक
मौलश्री तले
आ बैठी
छाँव की चादर ओढ़
कुम्हलाई दुपहरी।

**********


टुकड़ा तारों भरा

लिखें इक गीत
दूर के सफर के नाम
उमस भरे दिन
और उनिंदी रातों के लिए।

पड़ाव-दर-पड़ाव
शामियानों के बोझ से लदे
अब चरमराने लगे हैं कंधे।
याद आते बहुत हैं
पीछे छूटे
सड़क के हाशिए पर गड़े
मील के पत्थर।

चले हर दरख्त की छाँव
सहलाते हुए
धूप से कन्नी काटते।
प्रयास तो करें
समय के समानांतर चलें।

धूल भरी पगडंडी पर
आँधियों से बग़ावत करते
लिखें कोई पुस्तक
सौंप दें आने वाले
कल के हाथों।

चलो चलें आसमान पर
तोड़ लाए एक टुकड़ा
तारों भरा
अपनी छत बनाएँ।

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बड़ी हठी थी नदी

इधर न मुड़ो नदी
इस पथ पर
आगे बड़ा शहर है
शहर से दूर ही रहो
नदी
शहर से डरो।

चलो उधर दूर
उन वृक्षों के झुरमुट के मध्य
वहाँ से गुज़रें
आगे एक गाँव भी हैं छोटा-सा
खेतों के बीच से गुज़रते
तय करें आगे की राह
सोचो कुछ, विचारो नदी।

वहाँ हवा में महक है
मृदा में अपनापन है
वहाँ तुम्हारी लहरों को
निर्बाध मिलेगी गति।
वहाँ होंगे समीप तुम्हारे
विश्राम करते जीव कई।
तुझमें विचरते, प्यास बुझाते।

इधर न देखो नदी
इधर अब घर कहाँ
चारदीवारी से घिरी इमारतें है
गंदा पानी बहाती नालियाँ
बहुत विकट है इधर से गुज़रना।
जगह-जगह पर तुमसे छल होगा
गंदा तेरा जल होगा।

तटों ने बहुत कहा
कई बार समझाया
बड़ी हठी थी नदी
बात नहीं मानी नदी ने।

3 Total Review

वसंत जमशेदपुरी

18 December 2024

प्रकृति के माध्यम से गहरी बातें करती कविताएँ

ओम गिल

10 December 2024

प्यारचन्द शर्मा 'साथी' जी की पाँच सुन्दर कविताएँ।

J

Jagdish Gupta

10 December 2024

Good and remarkable to understand little bit but need to learn more.thanks

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रचनाकार परिचय

प्यारचंद शर्मा 'साथी'

ईमेल : sharmapyarchand123@gmail.com

निवास : भीलवाड़ा (राजस्थान)

जन्मतिथि- 22 जनवरी, 1946
जन्मस्थान- उदयपुर (राजस्थान)
शिक्षा- एम० एससी (वनस्पति शास्त्र)
संप्रति- राजकीय महाविद्यालय भीलवाड़ा से व्याख्याता पद से सेवानिवृत
प्रकाशन- कटी यात्रा (काव्य संग्रह) प्रकाशित।
वीणा, मधुमति, नवनीत, वातायन, बिंदु आदि पत्रिकाओं में प्रकाशन।
प्रसारण- आकाशवाणी के उदयपुर केंद्र से कविताओं का प्रसारण।
संपर्क- 3- इ -55, नया हाउसिंग बोर्ड, शास्त्री नगर, भीलवाड़ा (राजस्थान)
मोबाइल- 9468608462