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रंजना जायसवाल की कहानी 'लड़के की माँ'

रंजना जायसवाल की कहानी 'लड़के की माँ'

कुछ दिनों पहले ही नाडी ने पड़ोसी के मुख्य द्वार पर बनी सूखी नाली में बच्चे दिए थे शायद नाडी अपने बच्चों को छोड़कर खाने-पीने की तलाश में निकली थी। उसके बच्चे भूख से बिलबिला रहे थे और माँ की तलाश करते-करते सड़कों पर निकल आए थे। वह कुटकुट के शरीर के पास ऐसे बिखरे हुए थे, जैसे किसी बच्चे की गुल्लक अचानक से टूट गई हो और सिक्के सड़क पर बिखर गए हों। कुटकुट के लिए वह गुल्लक के सिक्के ही तो थे, जो उसे ख़ुशी दे गए थे। कुटकुट मुझे जिस तरह से देख रही थी कि मेरा मन भर आया।

कुटकुट। यही नाम था उसका। कॉलोनी की सबसे पुरानी कुतिया, उम्र लगभग दस-बारह साल, दूध-सी सफेद, कजरारी आँख, चाल में अलग-सी गम्भीरता। कॉलोनी के सारे छोटे बच्चे उसे कुत्ते की नानी कहते थे। ये बच्चे भी न…शुरू-शुरू में जब वह इस कॉलोनी में रहने आई थी तब बच्चों की टोली ने ही उसका उससे परिचय कराया था।

"आंटी! ये कुटकुट है। इस कॉलोनी की सबसे पुरानी कुतिया और ये बाकी सब उसके बच्चे और नाती-पोते हैं। नाडी, चिंकी, मिक्की, छुटकी, ब्लैकी और ये छोटे वाले अभी पैदा हुए उनका नाम नही रखा है।"

वह उनकी बातें सुन हँस दी थी। रिश्ते! रिश्ते जिन्हें इंसान कब का भूला चुका है, ये बच्चे जानवरों में रिश्तों को ढूँढ रहे थे। एक रिश्ता ही तो बन गया था उसका उन कुत्तों के साथ। उसने भी कहाँ सोचा था सुबह और शाम को दो रोटी के बदले वह उनके साथ जीवन भर का रिश्ता जोड़ चुकी थी! कुटकुट और उसका पूरा कुनबा उसके गेट के सामने ही लेटे रहता।

"आपको मुफ़्त के चौकीदार मिले हैं।"
एक दिन किसी ने यह बात कही तो वह खीझ गई थी। इंसान हर चीज़ में अपना फ़ायदा क्यों सोचता है! यहाँ इंसान के लिए जीवनभर कुछ भी कर दो, मौका पड़ने पर वह आपको दग़ा दे जाए तो कोई बड़ी बात नहीं पर ये बेज़ुबान उन दो रोटी के बदले अपनी वफ़ादारी दिखा रहे थे।

स्ट्रीट डॉग, जिन्हें आम भाषा में सड़क छाप कुत्ते भी कहते हैं। अक्सर इनके नाम पर सम्भ्रांत लोगों के मुँह बन जाते पर इस कॉलोनी के कुछ घरों के लिए वह खिलौने ही थे। जाड़ा हो या गर्मी, बारिश हो या लू, बच्चे अपनी माँओं से लड़कर दूध, ब्रेड, बिस्किट या रोटी ले ही आते थे।

"इन्हें बिस्किट मत दिया करो, नुकसान करेगा। इनमें कीड़े पड़ जाएँगे।"
यह बात जब उसने बच्चों से कही तो बच्चे पशोपेश में पड़ गए। क्या कहते वे बच्चे उन दो रोटियों और दूध के लिए उन्हें घर में कितनी जद्दोजहद करनी पड़ी थी। वक्त के साथ उसने भी कहना छोड़ दिया था क्योंकि जानती थी सारी दिक्कतों से ज़्यादा मुश्किल थी भूख की आग, जो किसी पानी से बुझाई नहीं जा सकती थी।

वक्त के साथ उसने भी नियम से उन कुत्तों को दो रोटियों का योगदान देना शुरू कर दिया। कहते हैं लत हमेशा बुरी और ख़तरनाक होती है और उसे भी उन कुत्तों की लत लग चुकी थी। किसी कारणवश अगर उसे घर से बाहर जाना पड़ता और घर में खाना न बन रहा हो तो वह बच्चों को उनके हिस्से की रोटियाॅं या ब्रेड पकड़ाकर जाती। जाड़े के दिनों में बच्चों की सहायता से दफ़्ती और ख़ाली प्लॉटों में पड़े ईंटों को चुराने से लेकर टेम्पोरी घर बनाने में उसका पूरा योगदान रहता। बच्चे भी उसकी फितरत से पूरी तरह वाकिफ़ हो गए थे। आए दिन कोई न कोई घर के दरवाज़े पर खड़ा ही रहता।

"आंटी, कोई बोरा होगा, ठंड बहुत है बच्चों को लिटाने के लिए चाहिए।"

तो कोई बारिश के दिनों में पन्नी की डिमांड लेकर खड़ा हो जाता।

"आंटी, कोई मोटी पन्नी होगी, चिंकी के बच्चे भीग रहे हैं।"

और वह अपने पिटारे में पन्नियाँ ढूँढने लगती। अब तो वो आटे की दस किलो की पन्नियों को धो-पोंछकर सम्भालकर रखने लगी थी। जाड़े में कुत्तों के कुनबों के काम आएँगी।

इस नई कॉलोनी को बने ज़्यादा दिन नहीं हुए थे। इसमें रहने वाले लोग अपनी जड़ों को छोड़, अपना घर-संसार बसाने आए थे। जड़ों से छूटने के दर्द लगभग सभी के चेहरों पर एक-सा ही था। इस नई कॉलोनी में शिफ्ट होने के बाद उसमें एक आश्चर्यजनक परिवर्तन भी आया था। गौरैये के विलुप्त होने की ख़बर पढ़कर अब वह रोज़ ज़िम्मेदार नागरिक की तरह उनके लिए रोज़ मिट्टी के कसोरे में पानी और दाना रखने लगी थी। बोनसाई पौधों के लिए लाए गए गमलों में से एक गमले को कुत्तों की इस बटालियन के नाम पर कुर्बान कर दिया था।

कुटकुट से एक अलग-सा नाता था उसका। शायद उसकी मासूमियत या फिर उसकी वो पनीली आँखें उसे हमेशा उसके आगे मज़बूर कर देतीं। उसकी कार जैसे ही गली में मुड़ती कार की आहट से उसके कान खड़े हो जाते और वह दौड़कर गली के मुहाने तक उसे लेने आ जाती।

बेचारी तीन साल से मरे हुए बच्चे को जन्म दे रही थी। सफेद ऊन के गोले की तरह बच्चे इस दुनिया को देखने से पहले ही काल के गाल में समा जाते। अपने नवजात बच्चे का मृत शरीर लिए वो पूरी कॉलोनी में घूमती। कभी अपने पैरों से तो कभी नाक से धकेल कर वह उसके मृत शरीर मे जीवन को ढूँढने का प्रयास करती पर वह निर्मोही अपनी माँ की किसी बात का कोई जवाब नहीं देता और उसका नवजात बच्चा वैसे ही पड़ा रहता। वो फिर भी उम्मीद नहीं छोड़ती और उसे अपनी लाल गद्देदार जीभ से चाटना शुरू कर देती। कभी-कभी लगता मानो वह कहना चाह रही हो-
"उठो मेरे लाल कब तक सोते रहोगे! इस दुनिया में तुम्हारा स्वागत है।"

पर वह बेचारी कहाँ जानती थी कि उसकी संतान इस दुनिया में आने से पहले ही दूसरी दुनिया को कूच कर गई है। वह उम्मीद का दामन पकड़े-पकड़े मेरे मुख्य द्वार तक पहुँच जाती और अपने बच्चे को धीरे-से एक तरफ रख देती। जैसे वह नहीं चाहती थी कि वह गहरी नींद से जाग जाए पर वह कहाँ जानती थी कि उसकी संतान एक ऐसी नींद में थीं, जो नींद कभी नहीं टूटेगी।

कुटकुट उसके दरवाज़े की तरफ बड़ी उम्मीद से देखती, जैसे कहना चाहती हो-
"देखो-देखो! ये मेरा बच्चा है। पता नहीं ये आँखें क्यों नहीं खोल रहा!"

वह हमेशा की तरह उसके सिर पर हाथ रख, पुचकारने का प्रयास करती पर जिन हाथों का स्पर्श उसे हमेशा सुकून देता था, आज वह भी उसके उन खुले घावों पर मरहम नहीं लगा पाता। उसकी पनीली आँखें अचानक से ज़्यादा पनीली लगने लगती। शायद भीतर की आद्रता आँखों में आँसू के रूप में बाहर छलछला जाती। उम्मीद का वह कमज़ोर धागा उसके चेहरे पर पसरी विवशता को पढ़कर टूट जाता।

वह हताश और निराश मन से उसके दरवाज़े से चली जाती और दो-तीन दिन तक दिखाई नहीं देती। उसकी आँखें लगातार उसे ढूँढती रहती। कहते हैं, जहाँ से आसरा और उम्मीद हो अगर उस घर के दरवाज़े भी बंद हो जाएँ तो अपना दुखड़ा आख़िर जीव किसके सामने दिखाएगा और रोएगा। कुटकुट अपनी मृत संतान और दुख को समेटे अचानक से लापता हो जाती। अज्ञातवास की अवधि को पूरा कर जब वह वापस आती, उसकी उदास आँखें और चेहरे को देख, वह आत्मग्लानि से भर जाती। कुटकुट की पनीली आँखें सुनसान सड़कों और गलियों में अपने नवजात को ढूँढती रहतीं। शायद कहीं किसी गली या सड़क से उसका बच्चा कूँ-कूँ करता निकलेगा और उसकी थनों से चिपक जाएगा। उसके थन दूध से भर जाते और उसे तकलीफ़ देने लगते।

वह एक औरत थी शायद इसीलिए उसके दर्द को अच्छी तरह समझती थी। जचगी और दुख से कुटकुट ने खाना-पीना छोड़ दिया था। उसने और कुत्तों से छुपा कर कुटकुट को अलग से हल्दी दूध देना शुरू कर दिया था। शायद जचगी के बाद तन के घावों का भरने का उसे इससे बेहतर कोई उपाय नहीं लगा था पर मन के घावों का क्या?

रोज़ की तरह सुबह-सुबह उसने गेट को खोला तो कुटकुट गेट के दरवाज़े पर ही लेटी हुई थी। उसने मुस्कुराकर कुटकुट की ओर देखा। उसने महसूस किया कि कुटकुट की आँखों के जुगनूओं में पहले जैसी चमक थी। कुटकुट की पीठ उसकी तरफ थी। वह सीढ़ियाँ उतरकर सड़क तक चली आई। कुटकुट के शरीर से चार बच्चे चिपके हुए थे, जो उसके थनों में मुँह मार रहे थे। वह ख़ुशी से चीख पड़ी यह किसके बच्चे थे। कुछ दिनों पहले ही नाडी ने पड़ोसी के मुख्य द्वार पर बनी सूखी नाली में बच्चे दिए थे शायद नाडी अपने बच्चों को छोड़कर खाने-पीने की तलाश में निकली थी। उसके बच्चे भूख से बिलबिला रहे थे और माँ की तलाश करते-करते सड़कों पर निकल आए थे। वह कुटकुट के शरीर के पास ऐसे बिखरे हुए थे, जैसे किसी बच्चे की गुल्लक अचानक से टूट गई हो और सिक्के सड़क पर बिखर गए हों। कुटकुट के लिए वह गुल्लक के सिक्के ही तो थे, जो उसे ख़ुशी दे गए थे। कुटकुट मुझे जिस तरह से देख रही थी कि मेरा मन भर आया।

"माँ सिर्फ़ माँ होती है। अपनी-पराई, सगी-सौतेली, तेरी या मेरी नहीं होती।"

वर्षों पहले माॅं की कही बात मेरे कानों में गूँज रही थी। मन न जाने क्यों अजीब-सा हो गया। मैं यादों के गलियारे में टहलने लगी।

"तेरी सास बड़ी कड़क है।" भैया ने कहा था।
"तुम भी क्या बात लेकर बैठ गए, उसे शादी से पहले डरा मत…।"
"पर हुआ क्या है?" माॅं ने अधीर होकर पूछा था।
"होना क्या था, पापा ने आंटी जी मतलब इसकी सास से बस इतना ही कहा था कि मेरी बेटी का ध्यान रखिएगा। आपकी बेटी की तरह ही है। उसकी ग़लती को छोटा समझ कर माफ़ कर दीजिएगा।"
"तो इसमें ग़लत क्या है। तेरे पापा ने ठीक ही तो कहा। हम बड़ों को बड़े कहलाने का शौक़ है तो दिल भी तो बड़ा रखना चाहिए।"
"जानती हो चारु, तुम्हारी सास ने क्या कहा? अगर आपकी बेटी मुझे अपनी माॅं समझेगी तो मैं भी उसे बेटी समझूँगी और अगर वो मुझे सास समझेगी तो फिर वह मेरी बहू तो है ही…!"
"अरे भाई वह लड़के की माँ है, थोड़ी हनक तो दिखाएगी ही। लड़के की माँ और लड़की की माँ में अंतर तो होगा ही।"

न जाने क्यों मुझे कुटकुट और माँ की बात एक साथ याद आ गई थी। माँ सिर्फ माँ होती है सगी या सौतेली नहीं।…कुटकुट दूसरे के बच्चों को बिना संकोच के पाल रही थी। अपना दूध पिला रही थी पर लड़की की माॅं और लड़के की माॅं में अंतर क्यों हो जाता है? हम क्यों नहीं सोच पाते की माॅं तो माॅं होती है। अपनी-पराई, सगी-सौतेली, तेरी या मेरी नहीं होती। उसकी सास जीवन भर अपनी ज़रूरत के हिसाब से कभी माॅं तो कभी सास बन जाती। आधा-अधूरा तो कुछ भी अच्छा नहीं होता। न वह पूरी तरह माॅं हो पाई और न ही सास…वह जीवन भर सिर्फ लड़के की माॅं बनकर ही रही, लड़के की माॅं!

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रचनाकार परिचय

रंजना जायसवाल

ईमेल : ranjana1mzp@gmail.com

निवास : मिर्जापुर (उत्तरप्रदेश)

सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन
लेखन विधाएँ- लेख, लघुकथा, कहानी, बाल कविता, बाल कहानी, कविता, संस्मरण एवं व्यंग्य।
प्रकाशन- दो कहानी संग्रह, एक साझा उपन्यास, एक साझा बाल कहानी संग्रह, एक साझा कविता संग्रह, छः साझा लघुकथा संग्रह, दो साझा व्यंग्य संग्रह, दो साझा आलेख संग्रह, सोलह साझा कहानी संग्रह प्रकाशित। विभिन्न राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी, लेख, व्यंग्य, कविता, बाल कहानी, लघुकथा और संस्मरण प्रकाशित। कई कहानियों का उर्दू, अंग्रेजी, गुजराती, उड़िया, नेपाली, अवधि और पंजाबी में अनुवाद। सुप्रसिद्ध बेवसाइट गद्य कोश, स्त्री दर्पण और हिन्दवी में रचनाएँ प्रकाशित।
प्रसारण- आकाशवाणी वाराणसी, दिल्ली एफ०एम० गोल्ड, रेडियो जंक्शन, मुंबई संवादिता, बिग एफ०एम० से नियमित रूप से कहानियों का प्रसारण। नीलेश मिश्रा की मंडली में लेखक के तौर पर कार्यरत।
अन्य उपलब्धियाँ- भारत सरकार के सांस्कृतिक मंत्रालय, साहित्य अकादमी (आज़ादी का अमृत महोत्सव) द्वारा आयोजित प्रतियोगिता में निर्णायक मंडल में ज्यूरी के रूप में शामिल। राष्ट्रीय स्तर की पत्रिका गृह लक्ष्मी में कवर पेज पर आने का मौका प्राप्त हुआ है।
सम्मान/पुरस्कार-
अरुणोदय साहित्य मंच से प्रेमचंद पुरस्कार
जयपुर साहित्य सम्मान 'श्रेष्ठ कृति सम्मान' से सम्मानित
साहित्यिक संघ, वाराणसी द्वारा 'साहित्य सेवक श्री' सम्मान
अंतराष्ट्रीय संस्था ब्रह्मकुमारी द्वारा 'नारी भूषण' से सम्मानित
अंतराष्ट्रीय संस्था इनर व्हील क्लब द्वारा 'साहित्य श्री' से सम्मानित
लघुकथा साहित्य मंच द्वारा 'कमल कथा रत्न' से सम्मानित
क़लम हस्ताक्षर मंच के 2021-22 के वार्षिक सम्मान में 'सशक्त लेखिका कलम सम्मान' से सम्मानित
जयपुर साहित्य संगीति द्वारा श्रेष्ठता अलंकरण पत्र हेतु चयनित विशिष्ट श्रेष्ठ कृति हेतु सम्मानित
सोशल कॉफी कैफ़े द्वारा 'सशक्त कलमकार' के रूप में सम्मानित
शब्द निष्ठा पटल द्वारा बेहतरीन कथाकार के रूप में सम्मानित
डॉ.कुमुद टीकू द्वारा आयोजित प्रतियोगिता में श्रेष्ठ कहानीकार के रूप में सम्मानित
उत्तर प्रदेश के सांस्कृतिक मंत्रालय और कालांतर संस्था द्वारा आयोजित कहानी और कविता प्रतियोगिता में प्रथम और तृतीय पुरस्कार से सम्मानित
लखनऊ कनेक्शन वर्ल्डवाइड में कविता और कहानी प्रतियोगिता में द्वितीय स्थान
निवास- लाल बाग कॉलोनी, छोटी बसही, मिर्जापुर (उत्तरप्रदेश)- 231001
मोबाइल- 9415479796