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ऋषिपाल धीमान की ग़ज़लों में स्मृतियों की अनुगूँज- के० पी० अनमोल

ऋषिपाल धीमान की ग़ज़लों में स्मृतियों की अनुगूँज- के० पी० अनमोल

स्मृतियाँ जल से लकदक बादलों की तरह होती हैं, जो अक्सर मन के मरुथल पर बरस कर उसे तरबतर कर दिया करती हैं। जब ये स्मृतियों के बादल घिरकर छाते हैं तो बारिश से पहले की सुहानी पवन की भांति यादों की फ़िल्म-सी चल पड़ती है ज़ेहन में। इस फ़िल्म में वे तमाम ख़ूबसूरत दृश्य होते हैं, जो समय के प्रवाह में कहीं पीछे छूट गये हैं। धीमान जी की ग़ज़लों में भी ऐसे ही अनेक दृश्य देखे जा सकते हैं।

ऋषिपाल धीमान हिंदी भावधारा की ग़ज़लों के कुछ बेह्तरीन रचनाकारों में से एक हैं। वे सीधी-सरल भाषा में बहुत सादगी और संजीदगी के साथ जीवन और उसके आसपास की बातें अपनी ग़ज़ल के शेरों में बाँधते हैं। धीमान जी ने एक लम्बे अरसे तक गुजरात जैसे अहिंदी क्षेत्र में रहते हुए हिंदी की ग़ज़लों को सम्पूर्ण समर्पण से साधा है और इसी कारण इन्होंने इस क्षेत्र में उल्लेखनीय स्थान प्राप्त किया है। धीमान जी के अब तक कुल 5 ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हैं तथा इन्हें हिंदी साहित्य अकादमी, गुजरात ने अपने साहित्यिक अवदान के लिए सम्मानित भी किया है। इनकी ग़ज़लें राष्ट्रीय स्तर के आलोचनात्मक ग्रन्थों तथा संकलनों में जगह बनाती रही हैं।

धीमान जी की ग़ज़लों से गुज़रते हुए एक बिंदु पर हमारा ध्यान बराबर जाता है और वह है इनकी ग़ज़लों में अपने गाँव, अपने पैतृक निवास और बचपन की परिस्थियों व परिवेश की स्मृतियाँ। इनकी ग़ज़लों में ये सभी बारम्बार आपको बहुत मार्मिकता से कथ्य में पिरोये हुए मिलते हैं। दरअसल ऋषिपाल जी उत्तराखण्ड के शिक्षा नगरी कहे जाने वाले रुड़की शहर के माधोपुर गाँव से आते हैं। प्रेम तथा अपनत्व से परिपूर्ण ग्रामीण परिवेश में पले तथा रुड़की विश्वविद्यालय से पढ़े धीमान जी जीविका के लिए गुजरात के अहमदाबाद शहर में व्यवस्थित हो जाते हैं तथा जीवन भर के लिए वहीं के निवासी बन जाते हैं। ऐसे में अपने आरंभिक जीवन का एक बड़ा हिस्सा जहाँ एवं जिन-जिन के साथ गुज़रा, वह सब 'स्मृतियों का एक पुंज' बनकर इनके साथ रह जाता है। बचपन का घर का माहौल, भरा-पूरा संयुक्त परिवार, बालपन के साथी, खेल-खिलौने, गलियाँ-पगडंडियाँ, खेत-खलिहान और पढाई के दौरान रुड़की के विश्वविद्यालय का कैंपस, वहाँ का माहौल, यार-दोस्त, शहर और शहर की ख़ूबसूरती सबकुछ वे अपने अंतर्मन में सँजोकर अपने साथ ले जाते हैं।
यही सब जो मन में सँजोया हुआ है, वह रह-रहकर अलग-अलग तरीक़े से तरह-तरह की संवेदनाओं, तरह की भावनाओं के माध्यम से इनकी ग़ज़लों में अभिव्यक्ति पाता रहा है। एक तरह से देखा जाए तो यह स्मृतियों की अनुगूँज एक प्रकार से 'ज़ेह्नी जुगाली' है। मैं धीमान जी से कुछ वर्षों से संपर्क में हूँ और दो बार मिला भी हूँ। इस दौरान जब भी हमारी बातचीत हुई, उनका गाँव, परिवार तथा रुड़की उस बातचीत में हमेशा उपस्थित रहे। यानी कहा जा सकता है कि धीमान जी का संवेदनशील मन अपने मूल परिवेश को कभी भी नहीं भुला पाया। अपने मूल परिवेश की जड़ें इनके मन में बहुत गहराई के साथ जुड़ी हुई हैं, जो इन्हें अक्सर भावुक करती रहती हैं।

बरसात में टपकना, वो छत का याद आए
बचपन का वह ज़माना, कैसे कोई भुलाए
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कभी आँगन की याद आए, कभी दर याद आता है
वतन से दूर रहकर रात-दिन घर याद आता है
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तमाम उम्र ज़हन में वो बनके याद रहे
वो माँ की झिड़की, बुआ का दुलार आँगन में

स्मृतियाँ जल से लकदक बादलों की तरह होती हैं, जो अक्सर मन के मरुथल पर बरस कर उसे तरबतर कर दिया करती हैं। जब ये स्मृतियों के बादल घिरकर छाते हैं तो बारिश से पहले की सुहानी पवन की भांति यादों की फ़िल्म-सी चल पड़ती है ज़ेहन में। इस फ़िल्म में वे तमाम ख़ूबसूरत दृश्य होते हैं, जो समय के प्रवाह में कहीं पीछे छूट गये हैं। धीमान जी की ग़ज़लों में भी ऐसे ही अनेक दृश्य देखे जा सकते हैं। इनकी ग़ज़लों में दादी की हांडी की खुरचन, बाबा की थाली की जूठन, पिता की रौबीली आवाज़, माँ का गिरवी रखा कंगन, बुआ की झिड़की, बचपन का खेल-मैदान आँगन, यार-दोस्तों के साथ की मस्ती, पनघट की खुसर-पुसर, गाँवभर के साथ मिलकर मनाए पर्व-त्योहार आदि-आदि कितने ही ऐसे दृश्य हैं, जो पाठक के मन-मरुथल को भी भावुक कर जाते हैं।

यहाँ इनके शेरों में उपस्थित कुछ बिम्बों की एक विशेषता यह भी है कि वे हमारे ग्रामीण अथवा क़स्बाई भारतीय परिवेश की सामाजिक-सांस्कृतिक तस्वीर भी हमारे सामने रखते हैं। गाँव-मोहल्ले का समरसता का माहौल, साम्प्रदायिक सद्भाव की भावना, घर-परिवार का अपनापन भरा कार्य-व्यवहार तत्कालीन समय को बड़ी बारीकी से हमारे सामने उपस्थित करते हैं ये बिम्ब। इसी प्रकार कुछ अपरम्परागत प्रतीक/उपमान ग़ज़ल के परिसर को भी विस्तार देते दिखते हैं। यहाँ हांडी, खुरचन, पनघट की खुसर-पुसर जैसे अनेक ऐसे शब्द अथवा वाक्यांश हैं, जो यह काम करते हैं।

कर जाती हैं आँखें गीली आवाज़ें
आती हैं जब याद पनीली आवाज़ें

काँप उठते थे सुनकर जिनको बचपन में
हाय! हुईं गुम वे रौबीली आवाज़ें

गलियों की, पनघट की खुसर-पुसर वाली
याद आती हैं छैल-छबीली आवाज़ें
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भरसक दौड़ी जीवन-पथ पर
ग़म का बोझ उठाकर दादी

सिल देती थी प्रेम की चादर
रिश्तों की कारीगर दादी
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चला घुटनों के बल जिसमें वही आँगन दिला दे तो
सभी ख़ुशियाँ उसे दे दूँ कोई बचपन दिला दे तो

सरकता था, लपकता था, जिसे खाने को मैं बच्चा
कोई बाबा की थाली की वही जूठन दिला दे तो

सभी मिलकर मनाते थे मोहर्रम, ईद, दीवाली
मेरा मौला हमें फिर से वही जीवन दिला दे तो

मैं सारी दौलतें उस पर लुटा दूँ एक ही पल में
रखे थे माँ ने जो गिरवी वही कंगन दिला दे तो

मैं उसके हाथ अपने आप को भी बेच डालूँगा
मेरी दादी की हांडी की कोई खुरचन दिला दे तो

रोज़गार की तलाश और अपने सपने पूरे करने का जूनून आदमी को अपने परिवेश से दूर ले जाता है। उसके अपने मूल क्षेत्र से बिछड़ने की कसक उसके ख़ुद के जीवन में तथा पीछे छूटे उसके अपनों के भी जीवन में भी बराबर बनी रहती है। हालाँकि अपने जीवन को सार्थक बनाना और देश तथा समाज के लिए कुछ अच्छा करना जैसे कुछ ज़रूरी मक़सदों के लिए एक नौजवान का घर छोड़ना कभी-कभी ज़रूरी भी हो जाता है लेकिन सब स्थिति-परिस्थिति जानते हुए भी जीवनभर एक टीस बनी रहती है। कितनी ही चीज़ें होती हैं, जो पीछे छूट जाती हैं और फिर कभी उन्हें चाहकर भी मिला या मेहसूस नहीं किया जा सकता। वाजिब है कि अपना बीता हुआ समय, छूटे हुए लोग रह-रहकर अनायास याद आते रहते हैं और एक तड़प मन को बेचैन बनाए रहती है।

यह तड़प, यह कसक ऋषिपाल जी के यहाँ भी बराबर मिलती है। अपने घर-परिवार और साथियों से बिछड़ने का ग़म, गाँव के पनघट, खेल के मैदान, मेले-उत्सवों से अलग हो जाने की तड़प इनकी ग़ज़लों के शेरों में जगह-जगह देखी जा सकती है।

दिल्लगी का वो ज़माना छूटा
यारों से मिलना-मिलाना छूटा

खेत-खलिहान बिके क्या अपने
गाँव जाने का बहाना छूटा
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वो घड़ी आज भी रह-रह के दुखाती है दिल
जिस घड़ी हमने बुज़ुर्गों का ठिकाना छोड़ा

लेकिन यह भी है कि धीमान जी जैसे संवेदनशील लोग गाँव-घर से अलग होकर भी कभी अपने अतीत से अलग नहीं हो पाते। उनकी संवेदनाओं के तार उन तमाम जगहों और लोगों से निरंतर जुड़े रहते हैं, जहाँ-जहाँ और जिन-जिनसे वे जुड़कर गुज़रे हैं। वे अपनी यादों में हमेशा और हर समय अपने बीते समय से जुड़े रहते हैं, उनके साथ बने रहते हैं। स्मृतियों की ज़ेह्नी जुगाली ऐसे संवेदनशील लोगों के लिए एक तरह की थैरेपी का काम करती है और उन्हें बचाए रखती है। धीमान जी ये शेर इसी ज़ेह्नी जुगाली का परिणाम है, जो इन्हें अपने लोगों और अपने परिवेश से हमेशा जोड़े रखती है।

पीछे मुड़कर देखने को लोग कहते हैं ख़राब
मैं सदा ही ख़ुश हुआ साथी पुराने देखकर
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मेरे दिल में धड़कते हैं अभी तक रुड़की-माधोपुर
भले ही रह गया हूँ अब अहमदाबाद का होकर

गहरे सामाजिक सरोकारों से जुड़ी ऋषिपाल धीमान जी की ग़ज़लें हिन्दी ग़ज़ल परिसर में घर-परिवार, गाँव, खेत-खलिहान और रिश्ते-नाते जैसे अनेक ज़मीनी विषयों का दायरा बढ़ाती हैं। अधिकतर जगहों पर ये सभी विषय इनके स्मृतिप्रधान शेरों के माध्यम से अभिव्यक्त होते हैं। इस प्रकार स्मृतियाँ इनके यहाँ एक ऐसी खिड़की का काम करती हैं, जो इनके लेखन के वर्तमान समय को अतीत की कड़ियों से जोड़ती हैं तथा इन्हें एक ज़मीनी ग़ज़लकार बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

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3 Total Review

आलोक गौड़

11 December 2024

ऋषि जी की ग़ज़लों में शब्दों की सादगी के साथ भाव की गहराई का जो मिलन है, वो उनकी रचनाओं के स्तर को बहुत ऊंचा उठा देता है। सादर.

आनंद सिद्धार्थ

09 December 2024

आदरणीय डॉ. ऋषिपाल धीमान जी जमीनी जुड़ाव रखने वाले उत्कृष्ट व्यक्तित्व के धनी उस्ताद गज़लकार हैं । उनके द्वारा लिखी हुई अद्भुत ग़ज़लें उन्हें देश के लब्ध प्रसिद्ध गजलकारों की अग्रिम पंक्ति में खड़ी करती हैं । हर युवा गज़लकार को उनकी गजलों का अध्ययन करना चाहिए । श्री धीमान जी की ग़ज़लों पर विमर्श करने के लिए आपको कोटिशः बधाइयां ।

ऋषिपाल धीमान

09 December 2024

शुक्रिया भाई अनमोल जी। मेरी गजलों की उस विशेषता को अपने रेखांकित किया जो मेरे दिल के बहुत करीब है।

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रचनाकार परिचय

के० पी० अनमोल

ईमेल : kpanmol.rke15@gmail.com

निवास : रुड़की (उत्तराखण्ड)

जन्मतिथि- 19 सितम्बर
जन्मस्थान- साँचोर (राजस्थान)
शिक्षा- एम० ए० एवं यू०जी०सी० नेट (हिन्दी), डिप्लोमा इन वेब डिजाइनिंग
लेखन विधाएँ- ग़ज़ल, दोहा, गीत, कविता, समीक्षा एवं आलेख।
प्रकाशन- ग़ज़ल संग्रह 'इक उम्र मुकम्मल' (2013), 'कुछ निशान काग़ज़ पर' (2019), 'जी भर बतियाने के बाद' (2022) एवं 'जैसे बहुत क़रीब' (2023) प्रकाशित।
ज्ञानप्रकाश विवेक (हिन्दी ग़ज़ल की नई चेतना), अनिरुद्ध सिन्हा (हिन्दी ग़ज़ल के युवा चेहरे), हरेराम समीप (हिन्दी ग़ज़लकार: एक अध्ययन (भाग-3), हिन्दी ग़ज़ल की पहचान एवं हिन्दी ग़ज़ल की परम्परा), डॉ० भावना (कसौटियों पर कृतियाँ), डॉ० नितिन सेठी एवं राकेश कुमार आदि द्वारा ग़ज़ल-लेखन पर आलोचनात्मक लेख। अनेक शोध आलेखों में शेर उद्धृत।
ग़ज़ल पंच शतक, ग़ज़ल त्रयोदश, यह समय कुछ खल रहा है, इक्कीसवीं सदी की ग़ज़लें, 21वीं सदी के 21वें साल की बेह्तरीन ग़ज़लें, हिन्दी ग़ज़ल के इम्कान, 2020 की प्रतिनिधि ग़ज़लें, ग़ज़ल के फ़लक पर, नूर-ए-ग़ज़ल, दोहे के सौ रंग, ओ पिता, प्रेम तुम रहना, पश्चिमी राजस्थान की काव्यधारा आदि महत्वपूर्ण समवेत संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित।
कविता कोश, अनहद कोलकाता, समकालीन परिदृश्य, अनुभूति, आँच, हस्ताक्षर आदि ऑनलाइन साहित्यिक उपक्रमों पर रचनाएँ प्रकाशित।
चाँद अब हरा हो गया है (प्रेम कविता संग्रह) तथा इक उम्र मुकम्मल (ग़ज़ल संग्रह) एंड्राइड एप के रूप में गूगल प्ले स्टोर पर उपलब्ध।
संपादन-
1. ‘हस्ताक्षर’ वेब पत्रिका के मार्च 2015 से फरवरी 2021 तक 68 अंकों का संपादन।
2. 'साहित्य रागिनी' वेब पत्रिका के 17 अंकों का संपादन।
3. त्रैमासिक पत्रिका ‘शब्द-सरिता’ (अलीगढ, उ.प्र.) के 3 अंकों का संपादन।
4. 'शैलसूत्र' त्रैमासिक पत्रिका के ग़ज़ल विशेषांक का संपादन।
5. ‘101 महिला ग़ज़लकार’, ‘समकालीन ग़ज़लकारों की बेह्तरीन ग़ज़लें’, 'ज़हीर क़ुरैशी की उर्दू ग़ज़लें', 'मीठी-सी तल्ख़ियाँ' (भाग-2 व 3), 'ख़्वाबों के रंग’ आदि पुस्तकों का संपादन।
6. 'समकालीन हिंदुस्तानी ग़ज़ल' एवं 'दोहों का दीवान' एंड्राइड एप का संपादन।
प्रसारण- दूरदर्शन राजस्थान तथा आकाशवाणी जोधपुर एवं बाड़मेर पर ग़ज़लों का प्रसारण।
मोबाइल- 8006623499