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नीरजा हेमेन्द्र की कहानी 'पथ से गंतव्य तक'

नीरजा हेमेन्द्र की कहानी 'पथ से गंतव्य तक'

जीवन का सायंकाल धूसर होता है। इसमें से चमकीले रंग क्या सचमुच समाप्त हो जाते हैं? आख़िर क्यों ऐसा होता है? यह प्रश्न मैं अक्सर स्वयं से पूछता। जबकि मैं वही, प्रियंका भी वही, मेरा बसाया-बनाया घर भी वही और मेरे दोनों बच्चे और मेरी आशाओं के अनुरूप ढला उनका जीवन। सबकुछ ठीक-ठीक ही था फिर मुझे क्यों लगता कि कुछ ऐसा है, जो मेरे अनुरूप नहीं है।

मेरी सेवानिवृत्ति में अब मात्र एक वर्ष ही तो शेष रह गया है। जीवन के विगत सत्ताइस वर्ष ऐसे व्यतीत हो गये, जैसे सत्ताइस दिन। कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता है, जैसे अभी कल ही नौकरी ज्वाइन की हो। सत्ताइस वर्ष जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होते हैं। सत्ताइस वर्ष, सत्ताइस दिन नहीं हो सकते। फिर भी विगत् सत्ताइस वर्षों का हवा के पंखों पर सवार होकर उड़ जाना, आज न जाने क्यों मुझे हल्की-सी पीड़ा पहुँचा रहा है।

जब भी मैं कभी अकेला बैठता हूँ तो सोचने लगता हूँ कि क्या मेरी उम्र साठ वर्ष की हो गयी है? मेरा मन ये मानने को तैयार नहीं है। कार्यालय के मेरे सहकर्मी कहते हैं कि मैं पैंतालिस-पचास से अधिक का नहीं लगता हूँ। अभी दो वर्ष पूर्व तक मुझे अपनी सेवानिवृत्ति की तिथि का स्मरण इस प्रकार नहीं आता था अथवा कह सकते हैं स्मरण रखना नहीं चाहता था। यही सोचता था कि जब सेवानिवृत्ति का समय आयेगा तब देखा जायेेगा।

अब मेरी सेवानिवृत्ति में एक वर्ष ही बचा है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि इस एक वर्ष के दिन भी कितनी तीव्र गति से व्यतीत होते जा रहे हैं। अब मुझे अपनी सेवानिवृत्ति का अहसास प्रतिदिन होने लगा है। क्यूँ मैं अपनी सेवानिवृत्ति को लेकर इतना अधिक सोचने लगा हूँ?

आज भी प्रतिदिन की भाँति कार्यालय से घर आया। हाथ-मुँह धोकर फ्रेश होने के पश्चात् अपने कमरे में टी०वी० खोलकर बैठ गया। मेरी पत्नी प्रियंका ने चाय बनाकर दे दी थी। मैं चाय पीते हुए समाचार देखने लगा। जैसा कि कार्यालय से आने के पश्चात् मेरी चर्या का हिस्सा है ऐसा करना। आज टी०वी० देखने में मेरा मन नहीं लग रहा है। मेरे विगत् दिन किसी चलचित्र की भाँति नेत्रों के समक्ष आते जा रहे हैं। ऐसा अक्सर ही होने लगा है, जब मैं विगत स्मृतियों में चला जाता हूँ।

आज भी स्मरण आने लगे हैं मुझे मेरे विद्यार्थी जीवन के वे दिन, जब मैं इसी शहर के विश्वविद्यालय में विद्यार्थी था। विद्यार्थी जीवन के वे दिन। युवा उम्र। निडर स्वभाव। जैसा कि उस उम्र में लगभग प्रत्येक युवा होता है किन्तु मैं कुछ अधिक ही निडर स्वभाव का था। क्योंकि उस समय मैं अपने मित्रों के साथ अन्याय होने या उनकी आवश्यकता पर किसी से, कहीं भी, कभी भी लड़ने-झगड़ने को तैयार रहता। मेरे मित्र कहते कि मेरे स्वभाव के साथ-साथ मेरा व्यक्तित्व भी आकर्षक है।

मुझे लगता कि मेरी इन्हीं विशेषताओं के कारण उस समय विश्वविद्यालय में मेरे मित्रों की संख्या अधिक थी। मित्रता निभाने के फेर में या अधिक व्यवहारकुशलता के कारण मैं सामाजिक कार्यों में अधिक और पढाई में कम समय दे पाता था। उस समय मेरी बुद्धि भी कुछ अधिक तीव्र थी, अधिक काम करती। इसीलिये कम पढ़ने पर भी अच्छे अंको में उत्तीर्ण हो जाता। मेरे मित्रों की सूची में लड़कियाँ भी सम्मिलित थीं। जबकि उस समय लड़कियाँ लड़कों की मित्र कम ही होती थीं। लड़कियों से मित्रता करना साहस का काम हुआ करता था। लड़के लड़कियों से प्रत्यक्ष बातें नहीं करते। छुपकर अवश्य कर लेते। किन्तु मैं लड़कियों से सबके समक्ष, क्लास में, अध्यापकों के सामने, कहीं भी बातें कर सकता था। लड़कियाँ भी मुझसे निःसंकोच बातें करती थीं।

मैंने भी कभी किसी लड़की के साथ अशोभनीय व्यवहार नहीं किया। मेरा घर विश्वविद्यालय से अधिक दूर नहीं, यही कोई लगभग एक कि०मी० की दूरी पर था। यदि किसी कारण मैं किसी दिन विश्वविद्यालय नहीं जा पाता तो उस दिन मेरे घर पर मेरे मित्रों का ताँता लग जाता। मेरे मित्र मेरा हाल पूछने घर आ जाते। उनकी यही शिकायत रहती कि आज विश्वविद्यालय में मेरे बिना उनका मन नहीं लग रहा है। विद्यार्थियों की समस्याओं के समाधन हेतु मेरा सदैव तत्पर रहना, मेरा हँसमुख व निडर स्वभाव तथा विद्यार्थियों के हित के लिए विश्वविद्यालय के अध्यापकों से बेबाक बातचीत कर लेना, मेरे मित्रों की संख्या में वृद्धि करता। आज साठ की उम्र तक आते-आते मैं सोचता हूँ कि विद्यार्थी जीवन मेरे ही नहीं, किसी के भी जीवन के सबसे ख़ूबसूरत दिन होते हैं। किसी भी प्रकार की चिंता से रहित। सबसे अच्छे दिन।

ऋतुएँ आती रहीं, जाती रहीं। शनै:-शनै: समय अपनी गति से आगे बढ़ता रहा। एक दिन वो भी आया, जब मेरी शिक्षा पूरी हो गयी। पुरूष प्रधान समाज में अब मुझ पर नौकरी ढूँढने का दबाव आ गया। मुझे अपने लिए नौकरी ढूँढनी थी, नौकरी करनी थी। विवाहोपरान्त अपने परिवार का पालन-पोषण भी करना था। अत: एक अदद नौकरी पाने के लिए मैं प्रयत्न करने लगा।

उन दिनों प्रिया मुझे बहुत अच्छी लगती थी। वो मेरे साथ ही विश्वविद्यालय पढ़ती थी। उसकी सादगी, शालीनता व आर्कषक गेहुँआ रंग, मुझे बहुत आकर्षित करते थे। वैसे तो अनेक लड़कियों से मेरी मित्रता थी किन्तु प्रिया के लिए मेरे हृदय में जो भावना थी, वो प्रेम की ही थी। प्रिया भी मेरी ओर आकर्षित थी। वो एक ख़ूबसूरत शाम थी, जब प्रिया ने विश्वविद्यालय के लाॅन में मेरे समक्ष अपने प्रेम को प्रकट किया। बस क्या था! मेरे दिन-रात गुलाबी जाड़े की गुनगुनी धूप में सराबोर रहने लगे।

सबकुछ और अच्छा लगने लगा। मैं प्रिया के हाथों को अपने हाथों में डाले लखनऊ की नवाबी धरोहरों में घूमने लगा। रेजीडेंसी, भूलभुलैया, इमामबाड़ा, पक्का पुल, दिलकुशा, बिजलीपासी का किला, चिड़ियाघर, शहीद स्मारक, कुड़ियाघाट, हजरतगंज आदि अनेक ऐतिहासिक स्थान मेरे प्रेम के साक्षी बने। उसी वर्ष मैंने व प्रिया ने कैथड्रल चर्च जाकर एक साथ मोमबत्ती भी जलायी। अपने प्रेम की दीर्घायु के लिए प्रभु से प्रार्थना की।

एक दिन वो हुआ, जिसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी। मेरे मित्रों में से ही किसी ने मेरे व प्रिया के प्रेम के बीच जाति की दीवार खड़ी कर दी। प्रिया उच्च जाति वर्ग से थी। किसी ने मेरी जाति के बारे में प्रिया को बता दिया। ऐसा नहीं था कि मैं प्रिया से अपनी जाति छुपाकर विवाह करता। यह बताने के लिए उचित अवसर की तलाश मुझे थी। फिर विद्यालयी शिक्षा में हमें यह भी तो पढ़ाया जाता है कि जाति-पाँति की दीवार तोड़कर हमें स्वस्थ समाज का निर्माण करना है।

प्रिया भी तो शिक्षित थी। उसने इन दकियानुसी बातों का विरोध क्यों नहीं किया? उसने क्यों नहीं एक स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए पहल की? मैं समझ गया कि ये सब किताबी बातें हैं। अपने प्रेम को इतना निरीह व दुर्बल तथा प्रिया की आँखों में अपने लिए इतना तिरस्कार मैंने पहली बार देखा। पहले तो मैं समझ ही नहीं पाया कि प्रिया मुझसे मिलना क्यों नहीं चाहती है?

प्रिया की एक मित्र, जो मेरी भी मित्र थी, उसके द्वारा सत्य पता चलने पर मैं अत्यन्त आहत हुआ। बहुत दिनों तक मैं प्रिया को समझाने के लिए उसके आगे-पीछे घूमता रहा,किन्तु उसने अपनी बात रखने का मुझे अवसर नहीं दिया। उसे विस्मृत कर पाना मेरे लिए कठिन हो रहा था।

नौकरी मिलने के पश्चात् प्रिया से विवाह करने की अपनी इच्छा घर में सबको मैंने बता दी थी। प्रिया मुझे छोड़कर चली गयी, ये बात मुझे बहुत ही संकोच के साथ मुझे घरवालों को बतानी पड़ी।

दो वर्ष बड़ी ही कठिनाईयों से मैंने व्यतीत किये। इस बीच आयकर विभाग में नौकरी की लिखित परीक्षा मैंने उत्तीर्ण कर ली थी। अब मात्र साक्षात्कार शेष रह गया था। इस बीच न जाने कैसे मेरे दूर के रिश्तेदारों की लड़की प्रियंका मेरे जीवन में आ गयी। इसका कारण कदाचित् यही हो सकता है कि प्रिया और प्रियंका नाम कुछ-कुछ एक-से हैं।

प्रिया का स्थान मेरे जीवन और हृदय में रिक्त था। उस रिक्तता का अनुभव मैं शिद्त के साथ कर रहा था। प्रियंका ने उस स्थान पर आने की दस्तक दी और मैंने उसे आने दिया। मेरे घरवालों ने मुझसे मेरी सहमति ली और प्रियंका के पिता से मेरे लिए उसका हाथ माँग लिया। अपने जीवन की रिक्तता में मैंने प्रियंका को भर लिया।

इधर न जाने क्या हुआ कि जिस नौकरी के लिए लिखित परीक्षा मैंने उत्तीर्ण कर ली थी, उसका साक्षात्कार रूक गया। नौकरी मिलना मेरे लिए दुःस्वप्न की भाँति हो गया। प्रियंका के पिता को जब ये बात ज्ञात हुई तो उन्होंने प्रियंका के लिए दूसरा नौकरी वाला लड़का देखना प्रारम्भ कर दिया। ये बात प्रियंका ने मुझे बतायी, साथ ही यह भी कि वो मुझसे प्रेम करती है और मुझसे ही विवाह करना चाहती है।

प्रियंका के हृदय में अपने लिए प्रेम की उद्दात भावना जानकर मैं जी-जान से कहीं भी नौकरी ढूँढने का प्रयत्न करने लगा। प्रियंका के पिता की इच्छा थी कि वो नौकरी करने वाले लड़के के साथ ही उसका विवाह करेंगे। मैं उनसे मिलने गया तो उनका व्यवहार मेरे प्रति बदला हुआ लगा। उसमें पहले-सी गर्मजोशी नहीं थी। मैं चुपचाप वहाँ से चला आया।

इस बार मैं अपने प्रेम की पराजय नही देखना चाहता था। मैं प्रियंका को किसी भी स्थिति में विस्मृत करने को तैयार नहीं था। मुझे नहीं पता था कि बाँहें फैलाये मुझे अपने पास बुलाने वाले प्रेम की राहें भी इतनी कठिन हैं। प्रिया के साथ मेरा प्रेम जाति की वेदी पर बलि चढ़ गया। प्रियंका से मिलने के पश्चात् सब कुछ सरल लग रहा था तो उसके मध्य भी नौकरी की दीवार आ गयी।

सरल-सा लगने वाला सबकुछ दुरूहताओं में इस प्रकार परिवर्तित हो जायेगा, मुझे तनिक भी इसका आभास नहीं था। प्रेम की राहें कठिन होती हैं, ये मैने सुना था, इसे समीप से देखने का अनुभव अब हो रहा था। मेरे साथ घटती जा रही त्रासदी पर ऊपर वाले को भी करूणा आ गयी। एक दिन सहसा डाकिया मेरे साक्षात्कार का पत्र घर दे गया।

समय ने करवट ले ली थी। मेरा भाग्य मेरे साथ था। प्रियंका भी मेरे भाग्य में थी। मुझे नौकरी मिल गयी। नौकरी मिलने के दो माह पश्चात् पहला कार्य मैंने यही किया कि सबसे पहले पड़ने वाले विवाह मुहुर्त में विधिवत प्रियंका से विवाह किया। जीवन सुचारू रूप से आगे बढ़ने लगा। प्रियंका के साथ घर बसाने व घर सजाने के सपने मैंने देखे थे, उन्हें पूरा करने का संघर्ष प्रारम्भ हो गया।

मुझे स्मरण था कि विवाह पूर्व एक बार प्रियंका ने मुझे बताया कि उसे शिक्षण कार्य में रूचि है। वह शिक्षिका बनना चाहती है। स्नातकोत्तर तक की शिक्षा तो उसने अपने पिता के घर से प्राप्त कर ली थी। किन्तु शिक्षिका बनने के लिए एक प्रमुख प्रशिक्षण कोर्स बी०एड० उसने नहीं किया था। अतः विवाह पश्चात् उसने बी०एड० किया।

आज के कठिन समय में नौकरी मिलना सरल नहीं था। प्रयत्न करने के पश्चात् भी प्रियंका को नौकरी नहीं मिल पा रही थी। समय के साथ मैं दो बच्चों का पिता बन गया। मेरी नौकरी के पैसों से घर की आवश्यकताएँ आराम से पूरी हो जातीं। प्रियंका अत्यन्त कुशलता से घर चलाती। अपव्यय का स्वभाव नहीं था उसका।

मैं बच्चों व प्रियंका की आवश्यकताएँ पूरी करने में कुछ अपव्यय भी कर डालता। घर में महंगा टी०वी०, फ्रिज, लाकर रख दिया। कमरे में ए०सी० लगवा दिया। मैं यही चाहता था कि मेरे बच्चों व प्रियंका को किसी प्रकार की तकलीफ न होने पाये। इन सब सुख-साधनों वाली वस्तुओं की माँग प्रियंका ने कभी भी नहीं की। बल्कि वो हमेशा फिजूलखर्च करने से रोकती, किन्तु मैं प्रियंका व बच्चों के चेहरे पर हमेशा प्रसन्नता देखना चाहता अतः उनकी सुख-सुविधा की वस्तुएँ घर में लाकर रखता रहता।

इस बीच जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव आते रहे। प्रियंका नौकरी के लिए प्रयत्न करती रही। एक दिन उसका परिश्रम सफल हुआ और प्रियंका सरकारी इण्टर काॅलेज में शिक्षिका बन गयी। जीवन में व्यस्तता कुछ और बढ़ गयी। बच्चे बड़े होने लगे। काॅलेज के सभी मित्रों की भीड़ न जाने कहाँ चली गयी।

जीवन में आपाधापी का ऐसा दौर प्रारम्भ हुआ कि न मैंने उन्हें ढूँढने का प्रयत्न किया, न उन्होंने मुझे ढूँढा। विद्यार्थी जीवन से ही मेरी एक बुरी आदत थी कि मैं किसी भी बात पर शीघ्र क्रोधित हो जाता था। क्रोध की अवस्था में ऊँची आवाज़ में बात करने लगता था। मेरे इस स्वभाव से प्रियंका किस प्रकार सामंजस्य स्थापित करती थी, वो वही जाने किन्तु उसने मेरे इस दुर्गुण को लेकर कभी मुझसे शिकायत नहीं की। मेरे गुणों व अवगुणों के साथ उसने मुझे अपना लिया था। बच्चों ने भी मेरे इस स्वभाव से सामंजस्य स्थापित कर लिया था।

विगत् स्मृतियों ने फुर्सत के इन पलों में जब दस्तक दे दी है तो मुझे एक घटना और भी स्मरण आने लगी है। वो यह है कि कार्यालय के मेरे मित्र यदा-कदा मेरे घर आते रहते हैं। वो कार्यालय की किसी भी महिला सहकर्मी से मेरा नाम जोड़कर प्रियंका से हास-परिहास करते। प्रियंका भी उनकी बातों को गम्भीरता से न लेकर हँसी में उड़ा देती। वो जानती थी कि मेरे मित्र ये सब मात्र हास-परिहास के लिए ही कर रहे हैं।

किन्तु एक बार प्रियंका ने उनकी बातों को हृदय से लगा लिया। उस आघात को सहन नहीं कर पायी तथा महीनों अवसाद में रही। उस अवसाद की स्थिति में उसने मेरे प्रेम पर संदेह किया। उस दौर के विषय में सोचकर आज भी हृदय काँप उठता है। प्रियंका से मैंने हृदय की गहराईयों से प्रेम किया है। मेरे प्रेम पर संदेह? यह मेरे लिए भी उतना ही कष्टकर था, जितना प्रियंका के लिए। वो कठिन समय भी समय के साथ गुज़र ही गया। अब प्रियंका हँस पड़ती है अपनी उन बेवकूफियों पर।

"सुनिए! हमें आकांक्षा के विवाह के लिए लड़का देखना चाहिए।" आज से सात वर्ष पूर्व एक सुबह प्रियंका ने मुझसे कहा था।
"आकांक्षा का विवाह?" उसकी बात सुनकर चौंक गया था।
"कितने वर्ष की हो गयी वो?" प्रियंका की बात सुनकर मैं देर तक सामान्य नहीं हो पा रहा था। उससे दूसरा प्रश्न पूछ लिया।
"क्या आशय आपका विवाह की उम्र से?" प्रियंका ने मेरी बात पर कोई प्रतिक्रिया न देते हुए एक दूसरा प्रश्न मुझसे पूछ लिया। उसकी बात सुनकर मैं निःशब्द रहा। इसका कारण यह था कि उस समय मेरे पास विवाह के लिए पैसे थे भी या नहीं, थे भी तो कितने थे? ये मैं नहीं जानता था।
"उसकी शिक्षा पूरी होने वाली है। एम०एस०सी० का अंतिम वर्ष है उसका।" प्रियंका के चेहरे पर खीज व चिंता की रेखाएँ स्पष्ट थीं। मैं सचमुच स्तब्ध और कुछ-कुछ चिंतित हो गया था अपनी पुत्री के विवाह को लेकर।

प्रियंका रसोई में और मैं चाय पीते-पीते सोच-विचार में मग्न हो गया था। ओह! इतनी शीघ्र समय व्यतीत हो गया! आकांक्षा विवाह योग्य हो गयी! मन में थोड़ी-सी घबराहट व आशंका व्याप्त हो रही थी कि आजकल की शादियाँ ख़र्चीली होने लगी हैं। मैं वह सब कर पाऊँगा या नहीं? मैं विचारमग्न बैठा था कि प्रियंका रसोई से मेरे पास आकर चाय पीने लगी।

"क्यों....क्या हुआ? क्या सोचने लगे?" मुझे चिंतित देखकर उसने पूछा।
"कुछ नहीं....बस यही कि समय कितनी शीघ्रता से व्यतीत हो गया। मुझे आभास तक नहीं हुआ कि हमारी पुत्री विवाह योग्य हो गयी है और उसके विवाह का उत्तरदायित्व भी हमें पूरा करना है।" प्रियंका चुपचाप मेरी बात सुनती रही।
"आजकल शादियाँ भी तड़क-भड़क और दिखावे से भरपूर होने लगी हैं। मुझे ऐसा लगता है कि इन शदियों में पैसा भी ख़ूब व्यय होता है।" मैंने कहा।
"हाँ! वो तो है। किन्तु सीधी-सरल शादियों को लोग तुच्छ दृष्टि से और भव्य शादियों को सम्मान की दृष्टि से देखते हैं। संसार का यही दस्तूर है। हम प्रियंका का विवाह ठीक-ठाक, सम्मानजनक ढंग से करेंगे। एक ही बेटी है हमारी। उसके विवाह में जो भी हमारी-उसकी इच्छा है, सपने हैं, वो सब पूरा करेंगे।" प्रत्युत्तर में प्रियंका ने कहा।
"नाते-रिश्तेदार, मित्र-परिचित, पास-पड़ोस सबके समक्ष अपनी प्रतिष्ठा रखनी है।" प्रियंका ने अपनी बात पूरी की।

मैं अपनी इकलौती पुत्री के विवाह की तैयारियों में लग गया। आकांक्षा अपनी माँ की भाँति आकर्षक थी। उसे देख लड़के वाले तुरन्त हाँ कह देते। मैंने व प्रियंका ने शीघ्रता न दिखाते हुए, बहुत-सोच विचार कर एक अच्छे लड़के से रिश्ता तय कर दिया। यद्यपि मेरे पास विवाह हेतु पर्याप्त पैसे नहीं थे। मैंने व प्रियंका ने अपनी सम्पूर्ण जमा राशि तथा कार्यालय भविष्य निधि के पैसे इत्यादि निकाल कर आकांक्षा का विवाह धूमधाम से कर दिया। प्रियंका की बात उचित थी कि हमारी एक ही बेटी है। पैसे तो पुनः जोड़े जा सकते हैं।

विस्तृत खाली पड़े मैदान-सा हमारा मन और उनमें विगत् स्मृतियाँ जब किसी चलचित्र की भाँति समक्ष आने लगती हैं तो ऐसा प्रतीत होता है, जैसे उनके और हमारे मध्य कोई अवरोध ही न रह गया हो। आज भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। हमारा पुश्तैनी घर हमारे तीन भाईयों के हिसाब से छोटा पड़ने लगा था।
सबके बच्चे बड़े होने लगे थे। सबकी आवश्यकताएँ, निजता अलग-अलग होने लगी थीं। अतः मैंने अपने लिए अलग घर ले लिया। घर लेने के लिये मैं तब सोच सका, जब प्रियंका भी नौकरी में आ गयी। उससे मुझे आर्थिक सम्बल भी मिल जाता। मेरे जीवन में प्रियंका न होती तो मैं.... मैं कुछ भी न होता। कोई पुरूष किसी स्त्री को, पत्नी को कैसे प्रताड़ित कर सकता है यह बात मेरी समझ से परे है।

जीवन में सबकुछ ठीक-ठाक चल रहा था। ससुराल में समायोजित होने में आयी कुछ प्रारम्भिक कठिनाइयों के पश्चात् आकांक्षा भी अपनी ससुराल में रच बस गयी है। मेरा बेटा राज्यवर्धन अपनी ग्रेजुएशन की शिक्षा पूरी कर नौकरी हेतु प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारियों में लग गया है। उसका अधिकांश समय पढ़ने व कोचिंग आने-जाने में व्यतीत हो जाता है। जबसे आकांक्षा का विवाह हो गया है, तबसे वह जब भी घर में होता है तो गुमसुम रहता है। मुझसे व प्रियंका से अधिक बातचीत नहीं करता। बहन के विवाह के पश्चात् कदाचित् वह अकेला पड़ गया है।
"पापा, हम दीदी के घर कब चलेंगे?" अक्सर मुझसे पूछता है।
"हाँ बेटा! शीघ्र चलेंगे। अभी पिछले हफ्ते ही तो हम सब उससे मिलने गये थे।" सांत्वना देते व समझाते हुए मैं उससे कहता।

दो बच्चों के साथ कभी-कभी ये भी समस्या आती है कि यदि एक किसी भी कारण से घर से या शहर से बाहर है तो दूसरे को समायोजित होने में कठिनाई होती है। ये मैंने राज्यवर्धन के साथ अनुभव किया। एकाकी परिवार की यह भी एक विडम्बना है। आकांक्षा की कमी को मैं और प्रियंका भी अनुभव कर रहे थे। किन्तु राज्यवर्धन के समक्ष हम अपनी पीड़ा का प्रकट कर भावनात्मक रूप से उसे और कमज़ोर करना नहीं चाहते थे।

शनैः-शनैः हमने स्वयं को राज्यवर्धन के इर्द-गिर्द सीमित कर लिया। किन्तु वह बहुत दिनों तक अपनी बहन की कमी को अनुभव करता रहा। अपना अकेलापन दूर करने के लिए आख़िर वह क्या करता? मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि उसे सामान्य करने के लिए हम काउन्सलर तक से मिले थे। अब तो ये बीती बातें हो गयी हैं।

समय के साथ सब कुछ सामान्य होने लगा था। राज्यवर्धन भी। बस एक काम नहीं हो पा रहा था। अथक प्रयत्नों के पश्चात् भी राज्यवर्धन को सरकारी क्षेत्र में नौकरी नहीं मिल पा रही थी। अन्ततः उसने एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी में नौकरी ज्वाइन कर ली है। यह अच्छा ही था क्योंकि घर में हम तीनों ही अपनी-अपनी तरह से अकलेपन का अनुभव कर रहे थे।

जीवन का सायंकाल धूसर होता है। इसमें से चमकीले रंग क्या सचमुच समाप्त हो जाते हैं? आख़िर क्यों ऐसा होता है? यह प्रश्न मैं अक्सर स्वयं से पूछता। जबकि मैं वही, प्रियंका भी वही, मेरा बसाया-बनाया घर भी वही और मेरे दोनों बच्चे और मेरी आशाओं के अनुरूप ढला उनका जीवन। सबकुछ ठीक-ठीक ही था फिर मुझे क्यों लगता कि कुछ ऐसा है, जो मेरे अनुरूप नहीं है।

प्रियंका आजकल अस्वस्थ रहने लगी है। न जाने किस अनजानी आशंका से मैं घबरा जाता हूँ। एक समय था, जब मैं एक निडर युवा था। किसी भी डर, आशंका से दूर। सबकुछ प्राप्त कर लेने के हौसले से भरा हुआ युवा मन। युवावस्था में या हम कह सकते हैं कि जीवन के प्रारम्भिक दिनों में जब हमारे पास कुछ भी नहीं होता, जीवन में सीखना-समझना और कुछ प्राप्त करना जब हम प्रारम्भ करते हैं, तब हम कभी भी आशंकित और भयभीत नहीं होते।

जीवनपथ के ढलान पर जब सबकुछ हम अपनी मुट्ठी में बंद कर चुके होते हैं, अपना प्राप्य प्राप्त कर चुके होते हैं तब किसलिए आशंकित होते हैं? ऐसे अनेक अनसुलझे प्रश्नों से जूझते हुए नौकरी में मेरी सेवानिवृत्ति के दिन समीप आने लगे हैं। अब मात्र एक वर्ष ही शेष बचा है।

आज रविवार था। अवकाश का दिन। प्रियंका को लेकर डॉक्टर के पास जाना था, गया। दवाईयाँ तो विगत् एक-डेढ़ वर्षों से चल रही हैं उसकी किन्तु स्वास्थ्य में सुधार नहीं हो रहा है। डायबिटीज तो थी ही, आजकल उसके कंधों में दर्द व जकड़न-सी रहने लगी है। डायबिटीज की दवा के साथ अब इस दर्द की भी दवा लेने लगी है। आजकल थकी-थकी-सी रहती है।

कितना अच्छा लग रहा है कि कुछ दिनों के लिए आकांक्षा आ गयी है। माँ की अस्वस्थता के विषय में राज्यवर्धन ने उससे फोन पर बताया होगा और वह माँ के पास रहने कुछ दिनों के लिए चली आयी है। मैं अपनी और अपने घर की समस्याओं से बच्चों को दूर ही रखता हूँ। विशेषकर आकांक्षा को। आकांक्षा के आने से घर में कितनी जीवंतता आ गयी है।

कितना अच्छा लग रहा है सबकुछ। आकांक्षा के मना करने के उपरान्त भी आजकल प्रियंका रसोई में अधिक समय व्यतीत करने लगी है। वह मेरे व बच्चों की मन-पसन्द की खाने-पीने की चीजें बनाती है।बच्चों के कारण उसका मन उत्साहित रहता है। मैं समझ नहीं पाता हूँ कि लोग बेटियों को बोझ क्यों समझते हैं?

आज यदि आकाांक्षा न होती तो हमारे घर में इतनी सकारात्मकता न होती, जिसकी इस समय अत्यन्त आवश्यकता है। इस समय ही क्यों, जब आकांक्षा पैदा हुई थी, उस समय से ही वह मेरे जीवन में सुख और सम्पन्नता लेकर आयी है। मेरी बड़ी इच्छा है कि नौकरी में रहते हुए ही राज्यवर्धन का भी विवाह कर दूँ। मैंने प्रियंका से एक बार अपने मन की बात की थी।
"आपकी इच्छा से इसमें कुछ नहीं होने वाला है। राज्यवर्धन की इच्छा होनी चाहिए।" प्रियंका ने हँसते हुए कहा था। प्रियंका द्वारा कही गयी बात में यथार्थ था। "फिर भी मैं आपके लिए राज्यवर्धन की इच्छा जानने का प्रयत्न करूँगी।" प्रियंका ने मेरी कठिनाई को सरल करते हुए कहा।

मैं मन ही मन प्रियंका के प्रति कृतज्ञ हो रहा था। सच कहूँ तो पारिवारिक मोर्चे पर मैं हमेशा स्वयं को हारा हुआ पाता हूँ। प्रियंका के बिना मैं कहीं भी कुछ नहीं हूँ। ऐसे अनेक अवसरों पर तब वह मेरा संबल बनती है, जब उसके संबल की आवश्यकता मुझे होती है।
और एक दिन प्रियंका ने बताया कि, "राज्यवर्धन की इच्छा है कि उसे सरकारी क्षेत्र में नौकरी प्राप्त करने का अवसर दिया जाए। अतः एक-दो वर्षो के पश्चात् आप उसके विवाह के सपने देखें।" बच्चों की बातें मुझसे बताते समय में प्रियंका के चेहरे पर एक अनोखी चमक स्वतः आ जाती है। वह चमक आज भी उसके चेहरे पर मौजूद थी। राज्यवर्धन की इच्छा से मैं सहमत था। उसकी सोच सही थी।

सेवानिवृत्ति में मात्र चार माह शेष रह गये हैं। अब तक मैं स्वयं को मजबूत इरादों वाला समझता था। किन्तु इधर कभी-कभी एक अजीब-सी अनुभूति होने लगती है, जैसे कोई बहुमूल्य वस्तु रेत की भाँति मेरी मुट्ठी से फिसलती जा रही है। कौनसी वस्तु? मेरे लिए समझ पाना मुश्किल हो रहा है।
सबकुछ तो है मेरे पास। मेरा परिवार, प्रियंका, मेरे बच्चे, सबकुछ मेरी आशाओं के अनुरूप ही तो है। बेटी का ब्याह कर चुका हूँ। मेरा बेटा राज्यवर्धन भी समझदार है। अपना भला-बुरा समझता है। अपने जीवन की दिशा अपने अनुरूप तय कर रहा है, जो उचित है। वह भी सेटल हो जायेगा कहीं न कहीं। तो क्यों कभी-कभी मेरा मन व्याकुल होने लगता है?

कभी-कभी सोचता हूँ अभी मेरी यह जो व्यवस्थित दिनचर्या है, सेवानिवृत्ति के पश्चात् अव्यवस्थित तो नहीं हो जायेगी? समय से उठना, चाय पीना, अख़बार पढ़ना, कार्यालय जाना कहीं सबकुछ अनियमित तो नहीं हो जायेगा? विद्यार्थी जीवन से ही मुझे ब्राण्डेड व नये-नये डिजायनों के कपड़े पहनने का शौक रहा है। यह शौक अभी भी है।

मेरे पास ऋतुओं के अनुसार कपड़ों का अच्छा-खासा संग्रह है। जाड़े की ऋतु के लिए विभिन्न प्रकार के सूट तथा गर्मियों के लिए सूती कपड़ों के अनेक डिजाइन व रंग। वे सभी कपड़े सेवानिवृत्ति के पश्चात् नियमित रूप से मैं कहाँ पहन कर जाऊँगा? मुझे अपने बड़े भाईसाहब की एक बात, जो कि लगभग चार वर्ष पूर्व सेवानिवृत्त हो चुके हैं, स्मरण आती है कि "पिछले जाड़े में मैं अपने गर्म सूट दो-तीन बार ही पहन पाया। सब हैंगर में टँगे रह गये। नियमित रूप से पहन कर जाऊँ भी तो कहाँ जाऊँ?" इन अनर्गल बातों की परछाईयाँ कदाचित् कभी-कभी मेरे चेहरे पर भी स्पष्ट होने लगतीं।

मेरी बेटी आकांक्षा मेरे चेहरे को पढ़ लेती और मेरी भावनाओं को कदाचित समझ भी लेती। तभी तो उस दिन मैं कार्यालय से घर आया था। हाथ-मुँह धोकर टी०वी० देखते हुए चाय पी रहा था। वह आकर मेरे पास बैठ गयी। मेरे साथ कुछ देर टी०वी० देखती रही। बातों-बातों में मेरी सेवानिवृत्ति के बारे में पूछने लगी।
"चार महीनों के बाद तुम्हारा पापा सेवानिवृत्त हो जायेगा।" मैंने उसके प्रश्नों का उत्तर देते हुए कहा।
"और फिर तुम्हारे पापा के पास समय ही समय रहेगा।" आगे मैंने कहा।
"तो क्या हुआ पापा!" उसने मेरे चेहरे पर उभर आयी निराशा को भाँप लिया था।
"सेवानिवृत्ति नौकरी का हिस्सा मात्र है। उसका उम्र, जीवन की गति या जीवन की सक्रियता से कुछ भी लेना-देना नहीं है। नौकरी से सेवानिवृत्ति का अर्थ जीवन की सक्रियता या उसकी गतिविधियों से सेवानिवृत्ति नहीं है।" आकांक्षा कहती जा रही थी। मैं निःशब्द उसकी बातें सुनता जा रहा था।
"रही बात पेंशन के पैसों से घर चलाने की तो माँ अभी छः वर्ष और नौकरी करेंगी। उनके सहयोग से आप आराम से घर चला लेंगे।"
"पापा! सेवानिवृत्ति सरकारी नौकरी की ही एक प्रक्रिया है। ठीक वैसे ही जैसे नौकरी में नियुक्ति भी एक प्रक्रिया है। सेवानिवृत्ति का शारीरिक या मानसिक सक्रियता या निष्क्रियता से कुछ भी लेना-देना नहीं है। आप व्यवस्था की एक शर्त पूरी कर रहे हैं, अपने जीवन की नहीं। पापा! आपके जीवन पर, आपकी सोच पर इसका प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए।" अपनी बात पूरी कर आकांक्षा मेरी ओर देखने लगी।

मैं आकंक्षा की बातें सुन ही नहीं रहा था, बल्कि सोच भी रहा था कि मेरी बेटी आंकाक्षा इतनी समझदार है? इतनी कम उम्र में भी वह जीवन के प्रति मुझसे अधिक यर्थाथ व स्पष्ट दृष्टिकोण रखती है। जीवन के उतार-चढ़ावों के प्रति एक परिपक्व दृष्टिकोण। मेरे पास आकांक्षा जैसी बेटी है तो मैं क्यों भविष्य की अनर्गल बातें सोच-सोच कर चिंतित होऊँ?

लोग तो बस यूँ ही बेटियों के प्रति संकुचित दृष्टिकोण रखते हैं। आकांक्षा की बातें सुनकर मेरे भीतर से मुट्ठी में बंद रेत की भाँति धीरे-धीरे कुछ फिसलता जा रहा है। कदाचित् वह मेरी नकारात्मकता है। मेरे जीवन में उपस्थित स्त्री के इन दो रूपों ने मुझे संबल और मेरे जीवन को सकारात्मकता दी है। विशेषकर आकांक्षा ने मुझे व प्रियंका को उस समय खुशियों के क्षण प्रदान किए हैं, जब मुझे उसकी अत्यधिक आवश्यकता महसूस हुई है। सचमुच बेटियों का स्थान कोई नहीं ले सकता।

सोचता हूँ कि जब मैं नौकरी में नहीं था तो क्या प्रसन्न नहीं था? अब सेवानिवृत्ति के पश्चात् क्यों न एक बार पुनः वही जीवन जीऊँ? ज़रूरतमंद, विवश मित्रों की सहायता व सुबह-शाम सैर-सपाटा, व्यायाम इत्यादि जो विद्यार्थी जीवन का मेरा शगल हुआ करता था, वो सब करूँ। यदि मैं वो सब करने लगूँ तो समय कम पड़ जायेगा। अनर्गल कुछ भी सोचने के लिए समय नहीं रहेगा।

दूसरा दिन- मैं टहलने के लिए जा रहा हूँ। मार्ग में मेरा विद्यार्थी जीवन मेरे समक्ष खड़ा है। उसके समीप मुझे पुनः जाना है। अब अपना पूरा समय उसे देना है, और मैं ऐसा क्यों न करूँ, वो दिन ही तो मेरे सबसे अच्छे दिन थे।

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रचनाकार परिचय

नीरजा हेमेन्द्र

ईमेल : neerjahemendra@gmail.com

निवास : लखनऊ (उत्तरप्रदेश)

शिक्षा- एम०ए० (हिन्दी साहित्य), बी०एड
संप्रति- अध्यापन
प्रकाशन- कहानी संग्रह- 'बियाबानों के जंगल', 'धूप भरे दिन', 'मुट्ठी भर इच्छाएँ', 'माटी में उगते शब्द (ग्रामीण परिवेश की कहानियाँ), 'जी हाँ, मैं लेखिका हूँ', 'अमलतास के फूल', 'पत्तों पर ठहरी ओस की बूँदें' (प्रेम कहानियाँ), '....और एक दिन'। आत्मकथा- 'पथरीली पगडंडियों का सफ़र'। उपन्यास- 'अपने-अपने इन्द्रधनुष ', 'उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए'। ललई भाई (एक राजनैतिक गाथा)। कविता संग्रह- 'मेघ, मानसून और मन', 'ढूँढ कर लाओं ज़िंदगी', 'बारिश और भूमि', 'स्वप्न'।
हिंदी की लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ, कविताएँ, बाल सुलभ रचनाएँ एवं सम सामयिक विषयों पर लेख प्रकाशित। रचनाएँ आकाशवाणी व दूरदर्शन से भी प्रसारित। हिंदी समय, विश्व गद्य कोश, विश्व कविता कोश, मातृभारती, प्रतिलिपि, हस्ताक्षर, स्त्रीकाल, पुरवाई, साहित्य कुंज, रचनाकार, हिंदी काव्य संकलन, साहित्य हंट, न्यूज बताओ डॉट कॉम, हस्तक्षेप, नूतन कहानियाँ आदि वेब साईट्स एवं वेब पत्रिकाओं में भी रचनाएँ प्रकाशित।
सम्मान- उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा प्रदत्त विजयदेव नारायण साही नामित पुरस्कार, शिंगलू स्मृति सम्मान। फणीश्वरनाथ रेणु स्मृति सम्मान। कमलेश्वर कथा सम्मान। लोकमत पुरस्कार। सेवक साहित्यश्री सम्मान। हाशिये की आवाज़ कथा सम्मान। कथा साहित्य विभूषण सम्मान। अनन्य हिंदी सहयोगी सम्मान आदि।
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