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रिश्ते काग़ज़ के- डॉ० रजनीकांत

रिश्ते काग़ज़ के- डॉ० रजनीकांत

आज रिश्ते स्वार्थों पर आधारित होने लगे हैं। कुछ देकर वापसी चाहते हैं। सब लाभ-हानि देखते हैं। किसी के पास मिलने के लिए समय नहीं है। जब पूछा जाता है तो समय अभाव का रोना रोया जाता है। सभी आजकल व्यस्त हैं। व्यस्तता का ढोंग किया जाता है। दिलों की दूरियाँ लगातार बढ़ती जा रही हैं। रिश्ते दोस्ती और संपर्क दूरियों ने खा लिए हैं।

समाज एक बड़ा वृक्ष है, यहाँ रिश्तों की कोई सीमा नहीं है। प्राचीन समय में वृक्ष, धरती, प्रकृति, नदी, देवी-देवताओं आदि से रिश्ते बनाकर पूज्य और श्रेष्ठ रूप में उन्हें प्रतिष्ठित करना भारतीय संस्कृति की विशेषता रही है। समाज का केंद्र बिंदु परिवार रहा है। रिश्तों की सार्थकता समाज को सही और उचित दिशा में चलाने से है। हमारा जीवन इन रिश्तों से दिल से जुड़ा होता है। माता-पिता, भाई-बहिन, चाचा-चाची, दादा-दादी, बाप-माँ, बेटी-बेटों, जीजा-साली का सामाजिक जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। वसुधैव कुटुम्बकम की विशाल भावना सृजन कर्म में पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक रिश्ते व्यक्ति संबंधों का महत्वपूर्ण स्थान है। सभी रिश्ते मानने के हैं, मानो तो गंगा माँ अन्यथा बहता पानी। रिश्ते श्रद्धा और आस्था पर आश्रित होते हैं। शालीनता, सज्जनता और सहृदयता जैसे सद्गुण परिवार से ही पनपते हैं, बात संस्कारों की है। विचार बदलते ही दृष्टि बदल जाती है। पूरा दृष्टिकोण बदल जाता है। एक शायर ने ख़ूब लिखा है-

सारे मतलब के रिश्ते नाते हैं
कब किसी का कोई हुआ है मियां!

आज रिश्ते स्वार्थों पर आधारित होने लगे हैं। कुछ देकर वापसी चाहते हैं। सब लाभ-हानि देखते हैं। किसी के पास मिलने के लिए समय नहीं है। जब पूछा जाता है तो समय अभाव का रोना रोया जाता है। सभी आजकल व्यस्त हैं। व्यस्तता का ढोंग किया जाता है। दिलों की दूरियाँ लगातार बढ़ती जा रही हैं। रिश्ते दोस्ती और संपर्क दूरियों ने खा लिए हैं। आधुनिक समय में संबंध धुंधला गये लगते हैं। सब काम मोबाइल पर हो रहे हैं। अब तो मात्र अहसास रह गया है कि कोई अपना अमुक स्थान पर बैठा है। बहुत हुआ तो हालचाल पूछ लिया। तस्वीरें देखकर संतोष कर लिया जाता है कि हमारा रिश्ता अभी कायम है। बना हुआ है। वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से वार्तालाप संभव हो गया है।

शादी ब्याह एक अवसर है, जहाँ रिश्तेदारों के साथ हम मिल-मिला लेते हैं। नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी में फ़ासला लगातार बढ़ता जा रहा है। नई पीढ़ी को पता नहीं कि हमारे कौन-कौन से रिश्तेदार हैं। वैसे सबका कर्तव्य बन जाता है कि हम ऐसे अवसर खोजें और अपने बच्चों को साथ लेकर ऐसे कार्यक्रमों में शिरकत करें।उन्हें अपनी पीढ़ी से परिचित करवाएँ। हम अपने बच्चों को सूचना मात्र देते हैं कि अमुक रिश्तेदार अमुक शहर में रहता है। कोशिश नहीं करते उन्हें अपने बच्चों के साथ मिलाया जाए। अपनी जड़ों से परिचित होना लाज़मी है। हम अपने गाँव में मिसाल दें। हर वर्ष दिसंबर के अंतिम रविवार को सभी गाँव के लोग एकत्र होते हैं। पूर्वजों के नाम पर आयोजन किया जाता है। सभी अपनी श्रद्धा के अनुसार अपना योगदान देते हैं। सभी अपने बच्चों को लेकर इस आयोजन में शामिल होते हैं। दोनों पीढ़ियों का मेल-जोल अच्छी बात है। बच्चों को अपनी संस्कृति, पूर्वजों के विषय में बताना बेहद ज़रूरी है। विवाह-शादियों में शगुन देकर रिश्तों की इतिश्री कर ली जाती है। हाजरी लगवाई और रात को ही खिसक लिए। अब यह औपचारिकता मात्र रह गई है। हम मेल-जोल बढ़ाना नहीं चाहते हैं। सभी अपनी दुनिया में मस्त और व्यस्त रहते हैं। बकौल एक शायर-

यूँ तो चारों ओर हैं रिश्तों के जमघटे
मन है कि इतनी भीड़ में तनहा दिखाई दे

सचमुच रिश्ते दिल के होते हैं। मानने के होते हैं। उन्हें मान से और मन से निभाना पड़ता है। यह रिश्ते धागे के समान होते हैं। गाँठ पड़ी तो सुलझाना कठिन।पर पावन रिश्तों को निभाता कोई-कोई है। लेकिन दुनिया में निभाने वालों की भी कमी नहीं है। सच किसी ने कहा है कि रिश्ते रूहों के होते हैं। उन्हें बड़ी शिद्द्त से निभाना पड़ता है। किसी शायर ने कहा है-

इन रूहों का रिश्ता बहुत पुराना है
इस युग में तो केवल उसे निभाना है

कई लोग रिश्तों को गले पड़ा ढोल समझते हैं। किसी न किसी ढंग से उसे बजाते जाओ। निभाना तो हर हालात में पड़ेगा। चाहे ख़ुशी से निभाओ, चाहे दुखी होकर। कहने को मोबाइल क्रांति से हम और समीप आ गये हैं। दूरियाँ घटी हैं पर यह खून के रिश्तों तक सिमित है। वसुधैव कुटुंबकम की भावना अब भी दूर की कौड़ी है। रिंग बजते ही लगता है न जाने कौन-सी मुसीबत गले पड़ जाएगी। कई बार हम अपनों से नज़र चुराने लगते हैं।

रिश्तों में बदलाव क्या आया, अब तो मुसीबत में नानी भी याद नहीं आती। भरी सुराही महबूबा थी। रीत गई तो माँ लगती है। अब तो आलम यह है कि सबको अपनी-अपनी पड़ी है। अब तो किसी को माँ-बाप, भाई-बहिन तक याद नहीं रहते। रिश्ते सच में मर रहे हैं। हम एकल परिवारों में बंट कर रह गये हैं। अति व्यस्तता का नाटक हर कोई कर रहा है। हर किसी के अपने दायरे हैं। अपनी सीमाएँ-परिसीमाएँ हैं। वृद्ध जोड़े अपने में व्यस्त हैं। युवा जोड़े अपनी दुनिया में खोये हुए हैं। वे अपने बच्चों में मस्त हैं। सभी की अपनी दुनिया है। अपने छोटे-बड़े सपने हैं। अपने दर्शन हैं। स्वयं को परिभाषित करते रहते हैं। पुरानी पीढ़ी नई पीढ़ी को पुनर्विचार करने को कहते हैं। इसके लिए विशाल हृदय अपेक्षित है। लोक संग्रह और सर्वजनहिताय की बेहद ज़रूरत है। अर्थपूर्ण रिश्ते स्थापित करने के लिए बड़े दिल की ज़रूरत होती है।

मेरे पिता जी कहा करते थे कि बेटा, इस संसार में रिश्ते काग़ज़ की तरह होते हैं। काग़ज़ पर लिख दिया तो अक्षर की तरह उभर आये। ज़रा-सी तान मारी कि काग़ज़ फट गया। सहेज कर रख दिया तो उम्र निकल गयी। फाड़ दिया तो चिंदी-चिंदी उड़ गयी। सचमुच रिश्ते बड़े नाजुक होते हैं। उन्हें सहेजना और संवारना पड़ता है। आधुनिक समय में संबंधों की धरा पर स्वार्थों की नागफनी उग आयी हैं। लालच, झूठ और प्रदर्शन का मरुस्थल प्रेम के मार्ग में रुकावट उत्पन्न करता है।,कोई जैसा है, उसे वैसा स्वीकार करने में भलाई है। मृत सद्भावनाओं को दफ्न करने में बेहतरी है। ख़ुद को उनका भाग मानकर तो देखिये। उनके गुणों पर केन्द्रित करके यह रुकावट दूर हो जाएगी। अपना किसी को बनाकर तो देखिये। मन का विकास करना बेहद ज़रूरी है। दुनिया को देखो दुनिया तुम्हारी हो जाएगी। आधुनिक समय में जो साथ चले वही रिश्तेदार है। वैसे इंसानियत का रिश्ता सब रिश्तों से ऊपर है। ऐसे रिश्ते सर्वश्रेष्ठ होते हैं। दुनिया में इंसानियत के रिश्ते बहुत कम देखने को मिलते हैं पर हैं ज़रुर। बकौल एक शायर-

करोड़ लोग हैं दुनिया में यूँ तो कहने को
कहीं-कहीं कोई इंसां दिखाई देता है

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रचनाकार परिचय

डॉ० रजनीकांत

ईमेल : bhavukrajni12@gmail.com

निवास : घनारी (हिमाचल प्रदेश)

गाँव व डाकघर- भंजाल ,तहसील- घनारी, ज़िला- ऊना (हिमाचल प्रदेश)- 177213
मोबाइल- 9418344159