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आधुनिक सरोकारों से सराबोर: अक्षर-अक्षर हव्य- सत्यम भारती

आधुनिक सरोकारों से सराबोर: अक्षर-अक्षर हव्य- सत्यम भारती

अक्षर-अक्षर हव्य का भाव पक्ष अत्यंत सबल, सुदृढ़ एवं अर्थप्रबल है। भाषा के सौंदर्य की बात अगर करें तो आमजन की भाषा में गृहस्थ के शब्दों का छौंक डाला गया है, जो इसे पाठकों के काफी क़रीब ले जाता है। भाषा, शब्द एवं कला में हमें सादगी देखने के लिए मिलती है, जो क़ाबिले-तारीफ है।

दोहा दो पंक्तियों के मध्य इतनी सारी बातें कह जाता है कि लगता है कि मानो शब्दों की समस्त शक्तियाँ, भावों की व्यंजनाएँ और अनुभावों की सारी खानें उसी में समाहीत हों। दोहा छंद अपनी विविधता और कार्य-व्यापार की व्यापकता के कारण सबसे प्राचीन छंद होने के बावजूद भी आधुनिक है। आज भी दोहा छंद उतना ही लोकप्रिय और कर्णप्रिय है, जितना पुरातन काल में था। आधुनिक भाव-व्यंजनाओं और समरसता को केंद्र में रखकर लिखे गये दोहे आज सबसे ज़्यादा पढ़े और लिखे जा रहे हैं। अनामिका सिंह जी की सद्य प्रकाशित पुस्तक अक्षर-अक्षर हव्य आधुनिक सरोकारों से सराबोर पुस्तक है। इसका एक-एक दोहा अद्वितीय और मारक है।

स्त्रियों के बारे में हर युग में कुछ न कुछ लिखा जाता रहा है लेकिन वास्तविकता यह है कि हमारे समाज में आज भी लड़कियाँ और महिनाएँ सुरक्षित नहीं हैं। न ही वे मानसिक स्तर पर सुरक्षित हैं और न भौतिक स्तर पर। आज़ादी के इतने सालों बाद भी देश की आधी आबादी, दोयम दर्जे की ज़िंदगी जीने पर मजबूर है। इसके लिए कौन ज़िम्मेदार है? इस प्रश्न का जवाब सर्वप्रथम इस पुस्तक में खोजने का प्रयास किया गया है-

नारी की नवरात्रि में, होती जय-जयकार।
पीड़ाएँ हर दिन नई, हैं जिसके उपहार।।

सामाजिक दुर्भाव की, सदियों रहीं शिकार।
लिंगभेद के और अब, क्यों हों जटिल प्रहार।।

सदा सांकलें बंद कर, लाज-हया के नाम।
रही घरों में कैद निज, है आधी आवाम।।

अधर शांत सीले नयन, मुख विषाद की रेख।
बिन बोले ही बाँचती, पीड़ा के अभिलेख।।

गोबर, उपलों खेत में, जीवन हुआ व्यतीत।
नारी के उत्थान के, रहे बे-सुरे गीत।।

अब धीरे-धीरे पढ़-लिखकर स्त्रियाँ अपने पैरों पर खड़ी हो रही हैं। आर्थिक और मानसिक स्तर पर मज़बूत हो रही हैं। अब नारियों की दुनिया चूल्हा-चौकी, बर्तन-बासन और रसोई से बाहर निकलकर ऑफिस, खेल के मैदान और अंतरिक्ष तक जा पहुँची है। महिलाओं की दक्षता और क्षमता पर अगर यह समाज विश्वास करके उन्हें आगे बढ़ने का मौका दे तो निःसंदेह स्त्रियाँ पुरूषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने के लिए तैयार हैं। स्त्रियाँ अब न केवल अपने अधिकारों को जानने लगी हैं बल्कि समाज से सवाल पूछने के लिए भी तत्पर हैं-

अबला थी सबला बनी, खड़ी मर्द समकक्ष।
घर, ऑफिस या खेत हो, नारी सब में दक्ष।।

स्टेयरिंग पर हाथ हैं, बांधे शीश दुकूल।
रखे रूप अब नारियाँ, अवसर के अनुकूल।।

क़दम-क़दम अवरोध हैं, साँस-साँस व्यवधान।
नारी के अधिकार के, तिर्यक हैं सोपान।।

किया किसी ने आज तक, इस पर भी क्या खेद।
विधवा ने जब लोक से, पाया रंग सफ़ेद।।

इस पुस्तक में स्त्रियों की अस्मिता और प्रश्नों के बाद अगर किसी विषय को व्यापक स्तर पर उभारा गया है तो वह है- किसानों की दयनीय स्थिति। भारत यूँ तो कृषि प्रधान देश माना जाता है और अन्नदाता किसान को विष्णु की तरह पालनहार की संज्ञा दी जाती है लेकिन हमारे देश में किसानों की क्या स्थिति यह सब जानते हैं। सूदखोरों, महाजनों के मायाजाल में फँसा भारतीय किसान कभी मौसम की मार झेलता है, कभी प्रकृति का विध्वंस, कभी परिवार की ज़िम्मेदारियों का बोझ ढ़ोता है, कभी कालाबाज़ारी का शिकार होता है तो कभी सरकार की मारक नीतियों को झेलता है। इस तरह से देखा जाए तो हर तरफ से शोषण का शिकार भारतीय किसान हो रहे हैं। हल को अपना मित्र समझने वाला हलधर, कब सल्फास की गोली खा लेता है और फाँसी पर लटक जाता है, पता ही नहीं चल पाता। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार भारत में 2014 से 2022 के बीच में लगभग 100,474 किसानों ने आत्महत्या कर ली। कवयित्री दोहे के माध्यम से किसानों की दयनीय स्थिति से पाठकों को रूबरू कराती हैं-

धनवानों के हाथ यह, बिकी हुई सरकार।
कृषकों का हक मारकर, लेती नहीं डकार।

कृषक राह में हैं खड़े, छोड़-छोड़ कर खेत।
हाकिम रह-रह फेंकता, बस जुमलों की रेत।।

करे कृषक अवमानना, राह ठोंकती कील।
खेतों पर मंडरा रही, खल सत्ता की चील।।

सत्ता की नौका डिगी, हुए छेद ही छेद।
नहीं देखती किन्तु वह, कृषकों का श्रम-स्वेद।।

किया कृषक ने इस तरह, माटी संग निबाह।
ब्याह रचाया खेत में, हुआ वहीं फिर स्वाह।।

कर्ज लाद खेती करे, देता दस के बीस।
पेट-पीठ दोनों मिले, उठे हृदय में टीस।।

पर्यावरण संकट और उसकी सुरक्षा आज के युग का सबसे बड़ा ज्वलंत मुद्दा और चुनौतीपूर्ण सवाल है। स्वार्थ और चकाचौंध में फँसकर मानव प्रकृति का लगातार अतिशय दोहन कर रहा है। जल, जंगल, ज़मीन, नदी, पोखर, पहाड़, समुद्र आदि कोई चीज नहीं है, जिसको मानव क्षति नहीं पहुँचा रहा हो। परिणाम हमारे सामने हैं, प्रकृति का ध्वंसकारी रूप हर रोज़ देखने के लिए मिल रहा है। मानवों का अस्तित्व प्रकृति से है, प्रकृति से अलग होकर मानव अस्तित्वहीन हो जायेगा। दोहाकार प्रकृति संरक्षण और पर्यावरण के साथ होने वाले मानवीय दुर्व्यवहारों की तरफ पाठकों का ध्यान आकृष्ट कराती हैं-

जल संरक्षण हेतु अब, तत्पर हों सब लोग।
भली नहीं देरी अधिक, वृथा रहेगा सोग।।

बूंद-बूंद से घट भरे, बूंद-बूंद अनमोल।
व्यर्थ न नीर गंवाइये, खर्च कीजिए तोल।।

नीर जलाशय में नहीं, जंगल डाले काट।
छाया पाएँ किस डगर, प्यास बुझे किस घाट।।

रीती नदियाँ, बावड़ी, अश्रु बहाये झील।
तूने ही ठोंकी मनुज, इनके तलवों कील।।

सूर्य किरण बरसा रहीं, अंबर से यूँ आग।
लगता है ज्यों डंस रहे, हर पल सौ-सौ नाग।।

आधुनिक जनजीवन भागदौड़ का जीवन है। इस भागदौड़ में मानव इतना भागता जा रहा है कि वह अपनों, परिवारों, रिश्तेदारों आदि से दूर होता जा रहा है। संयुक्त परिवार की अवधारणा, फ्लैट-क्लचर व एकल परिवार में तब्दील हो गया है। संवादों के अभाव में टूटते-बिखरते रिश्ते, अजनबीपन, संबंधों में कलूषिता आदि का उल्लेख इस पुस्तक में किया गया है, जो इसे प्रासंगिक बनाता है-

दृष्टि संकुचित है जहाँ, वहाँ न पनपे नेह।
संबंधों को ढांकता, कटुता का अवलेह।

रिश्ते सारे खोखले, लुप्त जहाँ अपनत्व।
बिना आर्थिक दीप का, जैसे नहीं महत्व।।

विकृत विचारों को करें, देते दिल पर घाव।
जीते जी मिटते नहीं, शक-शंका के घाव।।

बिगड़ गये रिश्ते सभी, नित होती तकरार।
संबंधों में संतुलन, जीवन की दरकार।।

पत्थर सम मानव हुए, रही सभ्यता कांप।
मानवता को डंस रहे, आस्तीनों के सांप।।

जीते जी जिसने न दी, सूखी रोटी साग।
वही पुत्र अब श्राद्ध पर, जिमा रहा है काग।।

निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि पुस्तक अक्षर-अक्षर हव्य का भाव पक्ष अत्यंत सबल, सुदृढ़ एवं अर्थप्रबल है। भाषा के सौंदर्य की बात अगर करें तो आमजन की भाषा में गृहस्थ के शब्दों का छौंक डाला गया है, जो इसे पाठकों के काफी क़रीब ले जाता है। भाषा, शब्द एवं कला में हमें सादगी देखने के लिए मिलती है, जो क़ाबिले-तारीफ है। सुंदर, सशक्त और मारक दोहों से सुसज्जित पुस्तक प्रकाशन हेतु कवयित्री अनामिका सिंह जी को मेरी ओर से हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ।

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समीक्ष्य पुस्तक- अक्षर-अक्षर हव्य
विधा- काव्य (दोहा)
रचनाकार- अनामिका सिंह
प्रकाशक- श्वेतवर्णा प्रकाशन, नॉएडा
संस्करण- प्रथम, 2024

1 Total Review

के० पी० अनमोल

16 September 2024

पुस्तक के सभी पक्षों पर चर्चा करती एक अच्छी समीक्षा। रचनाकार को बधाई।

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रचनाकार परिचय

सत्यम भारती

ईमेल : satyamjnu1995@gmail.com

निवास : बेगूसराय (बिहार)

जन्मतिथि- 11 दिसम्बर, 1996
जन्मस्थान- वनद्वार (बेगूसराय)
संप्रति- प्रवक्ता हिंदी
शिक्षा- एम० ए०, पीएच० डी (अध्ययनरत)
प्रकाशन- बिखर रहे प्रतिमान (दोहा संग्रह) एवं सुनो सदानीरा (ग़ज़ल संग्रह) प्रकाशित
दोहे के सौ रंग, हलधर के हालात, यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, मौसम बदलने की आहट, ओ पिता!, सूली पर भगवान, ग़ से ग़ज़ल, कविताओं में माँ एवं फ़लक आदि समवेत संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित
कविता कोश, गद्य कोश, अमर उजाला आदि पोर्टल पर रचनाएँ प्रकाशित
निवास- ग्राम व पोस्ट- वनद्वार, वार्ड नं०- 4, भाया-रजौड़ा, थाना- नीमा चाँदपुरा, ज़िला- बेगूसराय (बिहार)- 851131
मोबाइल- 8677056002