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यथार्थ बोध की स्वाभाविक निर्मिति है : पीठ पर टिका घर- रमेश प्रसून

यथार्थ बोध की स्वाभाविक निर्मिति है : पीठ पर टिका घर- रमेश प्रसून

लेखिका ने अपनी इन लघुकथाओं में अति विद्वतापूर्ण, अतिरंजित व्यन्जनाओं और अनावश्यक काल्पनिक उद्भावनाओं से बचकर अपनी बातें अति सहज और सरल तरीके से कह दी हैं। पीठ पर टिका घर एक पारिवारिक एवं सामाजिक रूपताओं और विद्रूपताओं के सत्य को उद्घाटित करने वाला 'कथा-गुच्छ' है, जो सहज पठनीय एवं अति प्रशंसनीय है।

पिछले साठ साल से अब तक अनेक समकालीन पत्र-पत्रिकाओं में निरन्तर प्रकाशित तथा कहानी, पौराणिक कहानी, उपन्यास, हास्य-व्यंग्य, बाल साहित्य तथा कविता जैसी विविध विधाओं में प्रकाशित 37 पुस्तकों की अति वरिष्ठ एवं सुप्रतिष्ठित लेखिका श्रीमती सुधा गोयल का प्रथम लघुकथा-संग्रह 'पीठ पर टिका घर' नमन प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा प्रकाश में लाई गई उनकी नवीनतम कृति है, जो निश्चित रूप से उनके दीर्घ काल से लेखन की निरन्तरता की मात्र परिचायक ही नहीं, हिंदी साहित्य के कहानी क्षेत्र की अन्यतम उपलब्धि भी है।

उपन्यास, कहानी या लघुकथा सभी के लिए समान रूप से लागू कथातत्व की श्रेष्ठता को प्रतिपादित करने वाले जो मानक और मापदण्ड समालोचकों द्वारा स्थापित किए गए हैं, उनमें औचित्यपूर्ण शीर्षक और कथन के सद् उद्देश्य को प्राथमिक महत्व दिया गया है।
इसी के अनुसरण में कहा जा सकता है कि प्रबुद्ध लेखिका सुधा जी के इस लघुकथा संग्रह का शीर्षक 'पीठ पर टिका घर' अत्यधिक व्यन्जनामूलक एवं उत्सुकता उत्पन्न करने वाला है, जो मानव-जीवन के विविध जनवादी आयाम एवं जीविका के विवश बोध को प्रदर्शित करने में सक्षम सिद्ध हो रहा है।दूसरे, उनकी लघुकथाओं के शीर्षक भी प्रायः इसी प्रकार का बोध कराते हैं। जैसा कि अधिकांश लघुकथाओं के सृजन में किसी वाक्यांश या घटना की अनर्गल, अस्पष्ट एवं अपूर्ण पूर्ति कर देने का चलन चल पड़ा है, उससे हटकर उनकी लघुकथाएँ कथन की स्पष्ट एवं उद्देश्यपूर्ण पूरी पूर्ति करती हुई प्रतीत हो रही हैं।

इस संग्रह की 94 लघुकथाओं में से अधिकांश में लेखिका नारी विमर्श के अन्तर्गत नारियों के विवश, विद्रूप, शोषित एवं उपेक्षित पक्ष को प्रबलता से प्रस्तुत करने में सफल रही हैं। ऐसी लघुकथाओं में उनके द्वारा सृजित सप्तपदी, तमाचा, दौड़, एक था राजा, छुटकारा, ये मेरी बेटी है, काले सिर वाली, दया, विषबीज, मृत्युभोज, माॅं का अधिकार, देवी का आना, घड़ियाल, खोटे सिक्के, साक्षात्कार, माटी की गुड़िया, वारियर्स, एवं इन्टरव्यू आदि किसी न किसी दृष्टि से विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

इसके अतिरिक्त उनकी लघुकथाओं में समाज द्वारा नारी के लिए निर्धारित की गई प्राचीन परम्पराओं, प्रथाओं और अंधरूढ़ियों को तोड़ने की प्रतिबद्धता स्पष्ट दिखलाई दे रही है। ऐसे प्रगतिशील विचार कहानी के माध्यम से नारी के लिए प्रगतिगामी मार्ग प्रशस्त करने का यथोचित एवं समसामयिक उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं।

पूर्व में सृजित अपने उपन्यासों एवं अपनी कहानियों में प्रतिपादित केंद्रीय विषय-वस्तु के तादात्म्य में लेखिका अपने इस लघुकथा संग्रह में भी समाज और परिवार के दैनन्दिन जीवन तथा आपसी व्यवहार की सूक्ष्मतर सकारात्मक एवं नकारात्मक वृत्तियों को इस प्रकार चित्रित करती हुई प्रतीत होती हैं, जैसे कथित घटनाएँ ऑंखों-देखी हों और अपने आसपास ही घटित होती दिखलाई दे रही हों। निश्चित रूप से किसी भी कहानीकार के लिए कल्पना लोक के स्वनिर्मित अयथार्थ बोध के गठन से इतर समाज एवं परिवार के यथार्थ बोध की स्वाभाविक निर्मिति कर पाना अत्यधिक सूक्ष्म एवं कठिन कार्य है, जिसे सहजता से कर दिखाया है कहानीकला में पारंगत श्रीमती सुधा गोयल ने अपने इस लघुकथा संग्रह में।

इस संग्रह की अन्य कहानियों के माध्यम से भी लेखिका द्वारा जो अन्य अनेक विषय प्रतिपादित किए गए हैं, उनमें प्रमुख हैं- परिवारों की टूटन, वृद्धों की उपेक्षा, व्यवहारगत असंगतियाॅं, प्रदषण, पर्यावरण, कवि-कर्म, जीवन-दर्शन, अवांछनीय एवं विवादास्पद समझौते, बनावटी जनवादी, ग़रीब और उपेक्षितों की करुण स्थिति, पौराणिक प्रसंग तथा नैतिक आचरण आदि।

यद्यपि उपरोक्त सभी विषय बार-बार दोहराये हुए लगते हैं लेकिन वस्तुत:ऐसा है नहीं क्योंकि सभी का सारा जीवन इन सभी स्थितियों के इर्द-गिर्द सदैव ही घूमता रहता है, जिसकी विविध घटनाओं का क्रम अनवरत रूप से इतने आयामों और इतने तरीके से समय-साक्षेप होकर सामने आता रहता है कि उसे कितने ही रूपों में नित नवीनता के साथ प्रस्तुत करने की सम्भावनाएँ बनी रहती हैं, जो अनंत हैं। इसीलिए युगों से वही मानव-व्यवहार बार-बार उपन्यासों में और कहानियों में नये रूप में प्रस्तुत होता रहता है, जिसे दुहराव नहीं कहा जा सकता। अलग तरीके का प्रस्तुतीकरण ही कहा जा सकता है, जो बदलते और आगे बढ़ते हुए समय के साथ नित्य नूतन बोध से परिवर्द्धित होता रहता है।

सुविज्ञ लेखिका के लेखन का एक अन्य विशिष्ट पक्ष उजागर होकर इन लघुकथाओं में भी सामने आया है, वह है हास्य-व्यंग्य से परिपूर्ण सृजन। ऐसी लघुकथाओं में हलो-हलो, क़नीज़ की अर्ज़ और लौकी आदि को अगणित किया जा सकता है।
कुल मिलाकर कहना उचित होगा कि लेखिका ने अपनी इन लघुकथाओं में अति विद्वतापूर्ण, अतिरंजित व्यन्जनाओं और अनावश्यक काल्पनिक उद्भावनाओं से बचकर अपनी बातें अति सहज और सरल तरीके से कह दी हैं। 'पीठ पर टिका घर' एक पारिवारिक एवं सामाजिक रूपताओं और विद्रूपताओं के सत्य को उद्घाटित करने वाला 'कथा-गुच्छ' है, जो सहज पठनीय एवं अति प्रशंसनीय है।

इस सराहनीय प्रस्तुति के लिए सुस्थापित लेखिका श्रीमती सुधा गोयल को अपनी इस दीर्घ साहित्यिक यात्रा को इस पड़ाव तक पॅंहुचा पाने के लिए हार्दिक बधाई। हार्दिक साधुवाद। शुभकामनाओं सहित।

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समीक्ष्य पुस्तक- पीठ पर टिका घर
विधा- लघुकथा
रचनाकार- सुधा गोयल
प्रकाशन- नमन प्रकाशन, नई दिल्ली

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रचनाकार परिचय

रमेश प्रसून

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निवास : बुलंदशहर (उत्तरप्रदेश)

संपादक- बुलंदप्रभा त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका
निवास- 4/75, सिविल लाइंस, टेलीफोन केंद्र के पीछे, बुलंदशहर (उत्तरप्रदेश)- 203001