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समकालीन यथार्थ का आईना : ये और बात है- के० पी० अनमोल

समकालीन यथार्थ का आईना : ये और बात है- के० पी० अनमोल

संजीव प्रभाकर की ग़ज़लें संभावना जगाती हैं। सबसे अधिक इनकी ग़ज़लों का कथ्य, जो समसामयिक है, प्रभावित करता है। एक रचनाकार के बतौर इनकी सोच संतुलित और परिपक्व नज़र आती है। ग़ज़लें अनेक अलग-अलग बह्रों में रची गयी हैं। अलग एवं नए रदीफ़ों में हाथ आज़माने का प्रयास भी किया गया है। यहाँ रचनाकार का ग़ज़ल विधा में कुछ अलग रचने का साहस द्रष्टव्य है।

संजीव प्रभाकर हिंदी ग़ज़ल के परिसर में उभरता हुआ नया नाम है। इनकी ग़ज़लें पिछले कुछ समय में तेज़ी से संज्ञान में आयी हैं तथा जगह-जगह प्रकाशित हुई हैं। अपनी सधी हुई ग़ज़लगोई से इन्होंने बरबस ही सबका ध्यान खींचा है। ये मूल बिहार से हैं, फ़िलहाल गुजरात के गांधीनगर में निवास करते हैं और भारतीय वायुसेना से स्वैच्छिक सेवानिवृत्त हैं। इनकी ग़ज़लों का पहला संग्रह ये और बात है वर्ष 2023 में श्वेतवर्णा प्रकाशन, नॉएडा से प्रकाशित हुआ है। ख़ास बात यह कि यह संग्रह हमारे समय के प्रतिभावान दिवंगत युवा कवि अमन चाँदपुरी पुरस्कार से पुरस्कृत है।

संग्रह में कुल 138 काव्य रचनाएँ हैं, जिनमें आरम्भ में गणपति वंदना, सरस्वती वंदना, दुर्गा स्तुति, भगवान शंकर, राम, कृष्ण तथा हनुमान वंदना तथा तिरंगा गान हैं। ये सभी स्तुतियाँ ग़ज़ल के ही प्रारूप में हैं। उर्दू ग़ज़ल में जहाँ फ़ारसी पृष्ठभूमि के प्रभाव स्वरूप संग्रह का आरम्भ हम्द एवं नात आदि से होता है, वहीं हिंदी की ग़ज़लों में माँ शारदा एवं अपने ईष्ट देवों की वंदना का प्रावधान अच्छा और समुचित है। ऐसा हिंदी के अन्य छंदों की पुस्तकों में भी होता आया है। पुस्तक की भूमिका हमारे समय के उस्ताद शायर डॉ० कृष्ण कुमार 'बेदिल' ने तथा फ्लैप हिंदी के वरिष्ठ ग़ज़लकार अनिरुद्ध सिन्हा जी ने लिखा है। 'हिंदी ग़ज़ल की परंपरा' शीर्षक से संजीव प्रभाकर का एक अच्छा लेख भी इस पुस्तक में शामिल है।

संजीव प्रभाकर जी की ग़ज़लें संभावना जगाती हैं। सबसे अधिक इनकी ग़ज़लों का कथ्य, जो समसामयिक है, प्रभावित करता है। एक रचनाकार के बतौर इनकी सोच संतुलित और परिपक्व नज़र आती है। ग़ज़लें अनेक अलग-अलग बह्रों में रची गयी हैं। अलग एवं नए रदीफ़ों में हाथ आज़माने का प्रयास भी किया गया है। यहाँ रचनाकार का ग़ज़ल विधा में कुछ अलग रचने का साहस द्रष्टव्य है।

इनकी ग़ज़लों में जीवन का यथार्थ प्रभावी रूप से जगह पाता है। आम इंसान के जीवन से जुड़े विभिन्न क्षेत्रों पर इनकी दृष्टि बराबर जाती है और उनसे जुड़ी स्थितियाँ-परिस्थितियाँ यथार्थपरक रूप से इनके शेरों में अभिव्यक्त होती हैं। इंसान के भीतर की नैसर्गिकता, रिश्तेदारी, बाज़ार का सच, परवरिश, मन से मन की बात या स्वाभिमान को कविता के रूप में प्रस्तुत करते ये शेर अपने समय के जीवन को रेखांकित करते हैं-

उसे  मरने  नहीं  देता,  उसे  जीवंत  रखता है
हर इक इंसान के अंदर छुपा रहता है जो बच्चा
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जान   देने   से  जान  लेने  तक
क्या न मुमकिन है रिश्ते-नातों में
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जड़ों  को  जो  जकड़  बैठे  समझना  ये उन्हें होगा
कि पौधे का कलम ज़्यादा विकसता है अलग होकर
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जहाँ  पे धड़कनों की बात धड़कनों से हो गयी
रिवाज-रस्म सब मुझे लगे फ़िज़ूल उस जगह
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अपने  पैरों  पे  जो  खड़ा होगा
उसका क़द हर जगह बड़ा होगा
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सरो-सामान  का  बिखरा  हुआ  वो इक समुंदर था
न दरिया था, न पानी था, गया मैं जब अमेज़न पर

इस अंतिम शेर में 'अमेज़न' के मूल अर्थ के साथ एक ऑनलाइन व्यावसायिक उपक्रम को संयोजित कर बाज़ार के व्यवहार पर अच्छा व्यंग्य किया गया है।

संजीव प्रभाकर जी की नज़र अपने समय पर पूरी तरह स्थिर है। वे अपने समाज व आसपास लगातार होती हलचलों को बहुत गंभीरता से देखते हैं। वह चाहे इंसान को इंसान से अलगाती राजनीति हो, धर्म का मनमाने ढंग से प्रयोग कर आम आदमी को बरगलाने का प्रयास हो, मीडिया का ग़ैर ज़िम्मेदाराना रवैया हो, जनता के सत्ताधारी प्रतिनिधियों का दायित्वों से कतराना हो या ग़रीबी की असलियत हो, रचनाकार सबकी तह तक जाकर साधारण आदमी को बहकावों में आने से बचाने के लिए सजग व सचेत करने का बारम्बार आह्वान करता है। और यह निष्कर्ष रखता है कि ग़रीबी को मेहनत तथा नफ़रत को मुहब्बत से ही जीता जा सकता है।

बोलना हितकर नहीं है, चुप रहो
क़ायदे  का  डर नहीं है, चुप रहो

आईना  जिसने दिखाया था उन्हें
आज उसका सर नहीं है, चुप रहो
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न  हिंदू है,  न मुस्लिम है ग़रीबी एक मज़हब है
न ईश्वर है, न अल्लाह है यक़ीनन पेट ही रब है

न होली है,  दीवाली है  न कोई ईद या क्रिसमस
सभी  त्योहार  लगते  हैं  कि रोटी पेट में जब है
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कभी वो कुछ, कभी वो कुछ, कभी वो कुछ दिखाते हैं
दिखाते   वो  नहीं,   होता  यहाँ  जो  देखने  लायक
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जवाबों से जब आप कतराएँगे
सवालों  के  घेरे में आ जाएँगे
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न  नेजे से न भाले से नहीं तलवार से जीतो
मुहब्बत की लड़ाई को उसी के वार से जीतो

हमारे देश में पिछले कुछ दिनों से चर्चा में रहे एक घटनाक्रम तथा उससे जुड़ी गतिविधियों के कारण भी कुछ शेर उभर कर आते हैं। हालाँकि बलात्कार जैसी पाशविक प्रवृत्ति और उसके प्रति हमारा क्षणिक आवेश लगातार देखने में आती दुखद घटनाएँ हैं। लगातार होती इन घटनाओं से हमारी नैतिकता, महिलाओं के प्रति पूरे भारतीय समाज की मानसिकता, व्यवस्था की निष्क्रियता एवं क़ानून की विवशता सब उजागर हो जाता है। कवि का प्रश्न कि यदि ऐसी घटनाएँ लगातार हमें शर्मशार करती रहती हैं तो क़ायदे-क़ानून का अस्तित्व क्या है, उचित ही है। इसके अलावा रचनाकार हम सभी देशवासियों का भी सच से साक्षात्कार करवाता है कि हमारी आँखों में उतरा यह पानी कुछ ही दिनों के लिए है। ये विरोध, ये प्रदर्शन, ये माँगें, यह उबाल कुछ ही समय का है। सब जानते हैं कि कुछ ही दिनों में धरने देने और पुतले जलाने के बाद हम शांत हो, बैठे रहेंगे। कवि के व्यंग्य बाण शायद हमें सोचने पर विवश करें-

महफूज़  जब नहीं है बेटी-बहन हमारी
क़ानून किसलिए है, काहे का क़ायदा है
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पिछली दफ़ा जो था हुआ, फिर से हुआ दो-चार दिन
भाषण  हुआ,  नारे लगे,  पुतला  जला दो-चार दिन
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ख़ूब हो-हल्ला रहेगा कुछ दिनों तक
फ़िक्र अपनी मौसमी है, सच कहूँ तो

संजीव प्रभाकर की ग़ज़लों का समसामयिक कथ्य इनके सृजन को विशिष्ट बनाता है। ये रचनाएँ इस ग़ज़लकार के सजग और अपने कर्म के प्रति ज़िम्मेदार होने का प्रमाण प्रस्तुत करती हैं। इन रचनाओं का हिंदी ग़ज़ल के संसार में अभिनन्दन है। हाँ, कुछ बातें रचनाकार से भविष्य के लिए अपेक्षित रहेंगी। इन पर भी इन्हें गंभीरता से विचार करना होगा। पुस्तक की ग़ज़लों में भाषा और वाक्य विन्यास से संबंधित बहुत त्रुटियाँ हैं। ये पाठक के प्रवाह को बाधित करती हैं। वचन संबंधी दोष भी दिखाई पड़ते हैं। शब्दों के प्रयोग को लेकर भी इन्हें सजगता दिखानी होगी। अच्छा होता कि रचनाकार अथवा प्रकाशक इन ग़ज़लों को प्रकाशित करने से पहले किसी जानकार से इन पर विचार-विमर्श कर लेते। पुस्तक कई उल्लेखनीय शेरों और अपनी सामयिक सामग्री के लिए सराही जाएगी। भाई संजीव प्रभाकर जी को ग़ज़ल में अच्छे भविष्य के लिए शुभकामनाएँ।

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समीक्ष्य पुस्तक- ये और बात है
रचनाकार- संजीव प्रभाकर
विधा- ग़ज़ल
प्रकाशक- श्वेतवर्णा प्रकाशन, नॉएडा
संस्करण- प्रथम, 2023

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रचनाकार परिचय

के० पी० अनमोल

ईमेल : kpanmol.rke15@gmail.com

निवास : रुड़की (उत्तराखण्ड)

जन्मतिथि- 19 सितम्बर
जन्मस्थान- साँचोर (राजस्थान)
शिक्षा- एम० ए० एवं यू०जी०सी० नेट (हिन्दी), डिप्लोमा इन वेब डिजाइनिंग
लेखन विधाएँ- ग़ज़ल, दोहा, गीत, कविता, समीक्षा एवं आलेख।
प्रकाशन- ग़ज़ल संग्रह 'इक उम्र मुकम्मल' (2013), 'कुछ निशान काग़ज़ पर' (2019), 'जी भर बतियाने के बाद' (2022) एवं 'जैसे बहुत क़रीब' (2023) प्रकाशित।
ज्ञानप्रकाश विवेक (हिन्दी ग़ज़ल की नई चेतना), अनिरुद्ध सिन्हा (हिन्दी ग़ज़ल के युवा चेहरे), हरेराम समीप (हिन्दी ग़ज़लकार: एक अध्ययन (भाग-3), हिन्दी ग़ज़ल की पहचान एवं हिन्दी ग़ज़ल की परम्परा), डॉ० भावना (कसौटियों पर कृतियाँ), डॉ० नितिन सेठी एवं राकेश कुमार आदि द्वारा ग़ज़ल-लेखन पर आलोचनात्मक लेख। अनेक शोध आलेखों में शेर उद्धृत।
ग़ज़ल पंच शतक, ग़ज़ल त्रयोदश, यह समय कुछ खल रहा है, इक्कीसवीं सदी की ग़ज़लें, 21वीं सदी के 21वें साल की बेह्तरीन ग़ज़लें, हिन्दी ग़ज़ल के इम्कान, 2020 की प्रतिनिधि ग़ज़लें, ग़ज़ल के फ़लक पर, नूर-ए-ग़ज़ल, दोहे के सौ रंग, ओ पिता, प्रेम तुम रहना, पश्चिमी राजस्थान की काव्यधारा आदि महत्वपूर्ण समवेत संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित।
कविता कोश, अनहद कोलकाता, समकालीन परिदृश्य, अनुभूति, आँच, हस्ताक्षर आदि ऑनलाइन साहित्यिक उपक्रमों पर रचनाएँ प्रकाशित।
चाँद अब हरा हो गया है (प्रेम कविता संग्रह) तथा इक उम्र मुकम्मल (ग़ज़ल संग्रह) एंड्राइड एप के रूप में गूगल प्ले स्टोर पर उपलब्ध।
संपादन-
1. ‘हस्ताक्षर’ वेब पत्रिका के मार्च 2015 से फरवरी 2021 तक 68 अंकों का संपादन।
2. 'साहित्य रागिनी' वेब पत्रिका के 17 अंकों का संपादन।
3. त्रैमासिक पत्रिका ‘शब्द-सरिता’ (अलीगढ, उ.प्र.) के 3 अंकों का संपादन।
4. 'शैलसूत्र' त्रैमासिक पत्रिका के ग़ज़ल विशेषांक का संपादन।
5. ‘101 महिला ग़ज़लकार’, ‘समकालीन ग़ज़लकारों की बेह्तरीन ग़ज़लें’, 'ज़हीर क़ुरैशी की उर्दू ग़ज़लें', 'मीठी-सी तल्ख़ियाँ' (भाग-2 व 3), 'ख़्वाबों के रंग’ आदि पुस्तकों का संपादन।
6. 'समकालीन हिंदुस्तानी ग़ज़ल' एवं 'दोहों का दीवान' एंड्राइड एप का संपादन।
प्रसारण- दूरदर्शन राजस्थान तथा आकाशवाणी जोधपुर एवं बाड़मेर पर ग़ज़लों का प्रसारण।
मोबाइल- 8006623499