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साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल- केशुभाई देसाई

साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल- केशुभाई देसाई

डायरी में एक-एक शब्द आँसू की स्याही से लिखा गया था इसलिए जिस किसी ने भी पढ़ी, वह गांधी जी के परम प्रिय नाती के साथ हुए अमानवीय दुर्व्यवहार की हृदय विदारक कथा से व्यथित होकर सन्न रह गया। गांधीनगर में मेरे पड़ोस में रहने वाले बुजुर्ग नेता माधवसिंह सोलंकी ने वह किताब समीक्षा करने के लिए मुझे भेजी। तब तक मैं हमीद कुरेशी से व्यक्तिगत तौर पर मिला नहीं था।

पोरबंदर का पौराणिक नाम सुदामापुरी है। मथुरा के राज-परिवार के होनहार किशोर वासुदेव कृष्ण के साथ उज्जयिनी नगरी स्थित सांदीपनि ऋषि के आश्रम में पोरबंदर का दरिद्र ब्राह्मण सुदामा भी विद्याध्ययन करता था। दोनों साथ-साथ आश्रम की गौएँ चराते, गुरु पत्नी के रसोईघर के लिए जंगल से लकड़ियाँ ले आते। दोनों के बीच इतनी गहरी मित्रता हो गई थी कि उन्हें अपनी आर्थिक औकात के बीच जो गहरी खाई जैसा अंतर था, उसका अंदाज़ा ही नहीं रह गया था। इसलिए बरसों बाद दरिद्र सुदामा जब घर में खाने को अन्न का दाना भी नहीं बचा था, बच्चे भूख से बिलबिला रहे थे तब अपने बचपन के मित्र, जो अब द्वारिकापुरी के राजा बन चुके थे, उनसे मदद माँगने की पत्नी की सलाह को नकार नहीं सके और बड़ी शर्मिंदगी ढोते हुए कभी साथ-साथ जंगल में ईंधन की लकड़ियों की तलाश में घूम चुके अपने उस अंतरंग मित्र श्रीकृष्ण के पास सहायता की अपेक्षा से तांदुल की पोटली लेकर पहुँचे। तब द्वारिकाधीश न राजा रहे, न दरिद्र अकिंचन सुदामा ग़रीब भूदेव।

गुजराती में आख्यान शिरोमणि महाकवि प्रेमानंद की कालजयी रचना है: सुदामा चरित्र। शायद ही कोई अभागा कृष्ण सुदामा के बीच हुई उस स्मरण गोष्ठी से अनभिज्ञ होगा।

पछे सुदामोजी बोलिया तने सांभरे रे?
हा जी बाळपणानी प्रीत, मने केम वीसरे रे?
भावार्थ-
फिर सुदामा जी बोले कि तुझे याद है रे?
हाँ जी, बचपने की प्रीत, मुझे कैसे भूले रे?

दोनों बाल मित्र अपने बचपन की यादों में इस कदर खो जाते हैं कि सुदामा जो कहने आए थे, वह बात ही भूल जाते हैं। कृष्ण की दृष्टि उन्होंने छिपा रखी तांदुल पोटली पर पड़ी और इतने प्यार से उन्होंने उसका भोजन किया, जैसे भविष्य में विदुर पत्नी के यहाँ करने वाले थे।

यह प्रसंग इसलिए याद आ गया कि ठीक उसी प्रकार की मित्रता पोरबंदर में पैदा हुए मोहन नामधारी भीरु बच्चे ने बैरिस्टर गांधी की भूमिका में दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के ख़िलाफ़ सफल सत्याग्रह करने के बाद जब हिन्दुस्तान आकर स्वतंत्रता सेनानी के रूप में काम करने का निर्णय किया तब फिनिक्स आश्रम में उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करने वाले समर्पित साथी ईमाम अब्दुल कादिर बवाजीर भी अपना सब कारोबार छोड़-छाड़ कर उनके साथ अहमदाबाद चले आए।

अहमदाबाद में आज कोई भी नामचीन व्यक्ति आता है तो वह साबरमती आश्रम का भ्रमण किए बिना वापस नहीं जाएगा। महात्मा गांधी की यह ऐतिहासिक कर्मभूमि अब राष्ट्रीय तीर्थ की प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुकी है। साबरमती आश्रम से पूर्व गांधी जी कोचरब की छोटी जगह पर रहते थे। साबरमती आश्रम विशाल भूखंड में फैला हुआ है। उसे राष्ट्रीय धरोहर के रूप में सजाया-सँवारा गया है। गांधी जी जिन मुस्लिम 'ईमाम साहब' को अपने साथ लेकर आए थे, उनके परिवार के लिए आश्रम में उन्होंने स्वतंत्र निवास का प्रबंध करवाया था। आज भी वह मकान 'ईमाम मंज़िल' के नाम से मशहूर है। अब उसे खादी ग्रामोद्योग केंद्र बना दिया गया है।

ईमाम बवाजीर मूलतः मुंबई के ईमाम परिवार से ताल्लुक रखते थे। उन्होंने ईमाम पद जारी रखने की बजाय अफ्रीका में व्यवसाय करना बेहतर समझा और शादी भी विदेशी महिला से की। उन्होंने रंगभेद के ख़िलाफ़ सफल सत्याग्रह करने वाले गांधी जी में एक फरिश्ता देखा और पूरी तरह समर्पित हो गए। वे कारोबार छोड़कर गांधी जी के साथ फिनिक्स आश्रम में बस गए। गांधी जी शाम की समूह प्रार्थना में नरसिंह मेहता का 'वैष्णव जन' भजन गाते थे। ईमाम साहब पक्के मुसलमान थे। भजन गाते समय वे 'वैष्णव' के स्थान पर 'मुस्लिम' शब्द रख दिया करते थे। वे दोनों में कोई अंतर नहीं समझते थे। सच्चा मुसलमान वैष्णव जन ही होता है, ऐसा दृढ़ विश्वास रखने वाले एवं नेकी और टेकी (संकल्प) की राह पर चलने वाले ईमाम साहब को महात्मा गांधी जी अपना 'सहोदर' समझते थे। कहते: हम भारत माता की कोख से पैदा हुए सगे भाई हैं।

इस बात की प्रतीति तब हुई, जब ईमाम साहब की इकलौती बेटी अमीना की शादी का प्रसंग आया। गांधी जी ने अपने 'सहोदर' की बेटी के निकाह की निमंत्रण पत्रिका अपने हस्ताक्षर से छपवाई और ख़ुद ही कन्या पक्ष के बुजुर्ग के रूप में पूरी रस्म अदायगी की। गांधी जी अमीना को अपनी बेटी मानते थे और उसके पति गुलाम हैदर कुरेशी को अपना दामाद। अमीना का बेटा हमीद गांधी जी की गोद में खेलकर बड़ा हुआ, ठीक उनके सचिव महादेव देसाई के पुत्र नारायण देसाई की तरह। बापू की गोद में खेलकर बड़ा होना कितना बड़ा सौभाग्य है! हमीद कुरेशी को यह सौभाग्य प्राप्त हुआ था। अम्मीजान अमीनाबीबी बापू के हर सत्याग्रह कार्यक्रम में शामिल होने को उत्सुक रहती थी। शादी के बाद जब-जब ऐसे अवसर आते, वह एकदम बापू के साथ जेल जाने को तैयार हो जाती। बापू उन्हें टोकते रहते। "पहले कुरेशी की अनुमति ले आओ।" अमीना थोड़े ही रुकने वाली थी? कुरेशी पुणे में जेल में बंद थे। वह रातों-रात ट्रेन से सफर करते हुए अपने खाविंद के पास पहुँच जाती। बापू कुरेशी को समझाने लगते: कुरेशी, आप तीन बच्चों के बाप हैं। ज़रा उनका भी ख़याल रखा करो!

कुरेशी छाती तानकर कहते: मुझे अपने अहमदाबाद की गुणग्राही जनता का पक्का भरोसा है। मेरे तीनों बच्चे हाथ में कटोरी लेकर 'तीन दरवाज़े' की चौखट पर बैठ जाएँगे तो वे उन्हें भूखे नहीं रहने देगी।

ऐसे गांधी जी से जुड़े परिवार में सर्वधर्म समभाव प्रारंभ से ही था। हमीद कुरेशी ने हिंदू महिला के साथ शादी की थी और उनके सुपुत्र न्यायमूर्ति आकिल कुरेशी की धर्मपत्नी भी हिन्दू हैं। हमीदभाई जीवन भर स्वयं बड़े नामी वकील के तौर पर काम करते रहे। गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री माधवसिंह सोलंकी भी वकालत के व्यवसाय में उनके असिस्टेंट पार्टनर रहे। माधवसिंह सोलंकी को जिस रहस्यमयी चिठ्ठी के चलते विदेश मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा था, उस मामले में उनके ख़िलाफ़ चली कानूनी कार्रवाई में हमीद कुरेशी ही उनकी ओर से पैरवी करते रहे।

हमीद कुरेशी ने हिंदू भद्रलोक की सोसाइटी में ही बंगला बनवाया था। अहमदाबाद का वह संभ्रांत निवासीय क्षेत्र नवरंगपुरा नाम से सुप्रसिद्ध है। नवरंगपुरा में शहर के नामचीन लोग रहते हैं। महात्मा गांधी के जन्म शताब्दी वर्ष में गुजरात में जो सांप्रदायिक दंगे हुए थे, उसकी चपेट में 'स्वस्तिक सोसाइटी' स्थित हमीद कुरेशी का घर भी आ गया था! उनकी कृष्ण भक्त हिन्दू धर्मपत्नी प्रतिदिन कृष्ण की मूर्ति की पूजा करती थीं और नियमित रूप से गीता-पाठ करती थीं। दंगाइयों ने घर जला दिया तो साथ में कृष्ण की मूर्ति और श्रीमद् भगवद्गीता का भी दाह-संस्कार हो गया था। खून के आँसू पीते-पीते अधिवक्ता हमीद कुरेशी ने उसका पूरा ब्यौरा अपनी डायरी में लिख छोड़ा था। बत्तीस साल बाद 2002 में फिर से गुजरात सांप्रदायिकता की आग में झुलस रहा था तब उन्होंने वह डायरी निकाली और ख़ुद उसे छपवाना नहीं चाहते थे फिर भी दोस्तों के आग्रह पर छपवाई। किताब का शीर्षक रखा: 'अग्निपरीक्षा'।

डायरी में एक-एक शब्द आँसू की स्याही से लिखा गया था इसलिए जिस किसी ने भी पढ़ी, वह गांधी जी के परम प्रिय नाती के साथ हुए अमानवीय दुर्व्यवहार की हृदय विदारक कथा से व्यथित होकर सन्न रह गया। गांधीनगर में मेरे पड़ोस में रहने वाले बुजुर्ग नेता माधवसिंह सोलंकी ने वह किताब समीक्षा करने के लिए मुझे भेजी। तब तक मैं हमीद कुरेशी से व्यक्तिगत तौर पर मिला नहीं था। सच कहूँ तो उनकी डायरी ने उनका परिचय करवाया। मैं 'अग्नि परीक्षा' पढ़ते-पढ़ते अनजाने ही परकाया प्रवेश कर उनके अस्तित्व से जुड़ गया और फिर जो समीक्षा लिखी उसका शीर्षक रखा- 'गांधी विचार की अग्नि परीक्षा।' जब माधवसिंह सोलंकी ने वह समीक्षा अपने मित्र हमीद कुरेशी को भेजी, वे बिलख-बिलख कर रो पड़े। दो दिनों के बाद मुझे उनकी चिठ्ठी मिली। लिखा था, "केशुभाई, डायरी लिखते समय नहीं आया था उतना रोना, आपका लेख पढ़कर आया। आपके एक-एक शब्द पर मेरी आँखें नम हुई हैं। सचमुच आपने मेरी पीड़ा को आत्मसात कर मेरी पुस्तक को चार चाँद लगा दिए हैं।" बुजुर्ग हमीद कुरेशी मेरे अपार्टमेंट की छप्पन सीढियाँ चढ़कर मुझसे मिलने आए तब उनके झुर्रियों वाले चेहरे पर आँसू थे।

हमीद कुरेशी अब इस दुनिया में नहीं हैं। मैं चाहता था कि हमें उनकी आत्मकथा मिले। वैसे वे अपने आप ही एक एपिक नॉवेल थे। कभी मुझे भी उनको नायक बनाकर उपन्यास लिखने की इच्छा हो आई थी पर अब वह संभव नहीं है। उस समय लिख लिया होता तो सांप्रदायिक सौहार्द के विषय वस्तु वाले मेरे दो उपन्यासों में जुड़कर हमीद कुरेशी मेरी कथात्रयी का मुकुट बन जाते। अब भी उनकी जीवनी लिखने वाला कोई संनिष्ठ लेखक मिल जाए तो कितना अच्छा। कुरेशी कुनबा जाति, धर्म, भाषा और देश की सीमाएँ लाँघकर वैश्विक परिवार का अनूठा आदर्श बन चुका है। विशाल वटवृक्ष जैसे कुरेशी परिवार की बेटियाँ कोई हिन्दू से ब्याहीं हैं तो कोई ईसाई, जैन, पारसी से। उनके बेटे भी इसी तरह अलग-अलग धर्म, जाति व देश से चुनकर जीवनसाथी लाए हैं।
हमीद भाई ने अपने उत्तराधिकारियों से कह रखा था कि मृत्यु के बाद उन्हें अग्निदाह दिया जाए। परिवार ने उनकी आज्ञा का पालन करते हुए इस्लामी परंपरा के अनुसार दफ्न करने के बजाय उन्हें अग्निदाह दिया था।

राष्ट्रीयता की धरोहर जैसे कुरेशी परिवार के मुखिया न्यायमूर्ति आकिल कुरेशी को पिता की गांधी विचार पूत जीवन शैली उत्तराधिकार में प्राप्त हुई है। अपने सिद्धांतों पर अडिग रहने वाले वरिष्ठ न्यायमूर्ति को सरकारी हस्तक्षेप के चलते कई बार अन्याय सहना पड़ा है। वरिष्ठतम होने के बावजूद जस्टिस कुरेशी को सुप्रीम कोर्ट का जज नहीं बनने दिया गया था। उन्हें इस बात का मलाल नहीं अपितु गर्व है कि वे संविधान एवं अपनी अंतरात्मा के प्रति नितांत वफादार रहे हैं।

हमीद कुरेशी साबरमती आश्रम के आमरण ट्रस्टी रहे। गांधी जी को उन्होंने अपने ज़ेहन में उतारा था। चाहते तो गांधी जी से क़रीबी एवं माधवसिंह सोलंकी जैसे वरिष्ठ नेता की दोस्ती का लाभ उठा सकते थे। कांग्रेस शासनकाल में बड़ी सरलता से चुनाव जीत कर विधायक या सांसद बन सकते थे। राजनीति करते तो निश्चित तौर पर कांग्रेस के बड़े नेताओं में शुमार हो जाते। चाहते तो आसानी से राष्ट्रीय पुरस्कारों से विभूषित हो सकते थे। राज्यसभा के सदस्य और किसी राज्य में राज्यपाल के पद पर नियुक्त किए जा सकते थे। किंतु उनको ऐसा सपना तक नहीं आया। नाना और बापू ने बचपन में नैतिक मूल्यों की जो विरासत दी थी, उन्होंने उसी राह पर चलकर आम आदमी बनकर हाशिए में रहना पसंद किया। अपनी औलाद को भी वही संस्कार दिए और अपने बलबूते पर नाम कमाने को प्रोत्साहित किया। आज भी कुरेशी कुनबा पूरे देश के लिए एक आदर्श वैश्विक परिवार का रोल मॉडल बना हुआ है। यह अलग बात है कि देश में जिस तरह से संकीर्ण मानसिकता का माहौल बना है, इस वजह से उस परिवार की ओर किसी का ध्यान नहीं गया।

हमीद कुरेशी के नाम से गूगल खंगालने पर दूसरे दो चार हमीद कुरेशी मिल जाएँगे। गांधी जी की गोद में खेलकर बड़े होने वाले हमीद कुरेशी को गुजरात और गूगल दोनों ने भुला दिया है। गुलज़ार साहब का शेर याद आ रहा है:

हैरान बैठे हैं वक्त का धागा लेकर,
ख़्वाब बुनें या रूह को रफू करें

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KANJI maheshwari

16 November 2024

सत्य को आवरण से ढक देना ये कोई नयी बात तो हैं नहीं ! हमीद कुरेशी गांधी विचारों में पला पोषा हैं । आपने आवरण दूर किया तो सही - लेकिन अनेक लोग सच्चाई को ढकने का आज भी निरंतर प्रयास कर रहें हैं ।और यही प्रयास से उन्हें वाह वाह मिल रहा हैं ।

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रचनाकार परिचय

केशुभाई देसाई

ईमेल : dhartinachhoru@gmail.com

निवास : गांधीनगर (गुजरात)

निवास- 13, ऐश्वर्य-1, प्लॉट- 132, सेक्टर- 19, गांधीनगर (गुजरात)- 382021
मोबाइल- 8200071363