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सुधा गोयल की कहानी 'उम्र कैद'

सुधा गोयल की कहानी 'उम्र कैद'

"तुझे यहाँ नहीं रहने दूँगी माधवी! तू मेरे साथ चलेगी। तुझे अभी जमानत पर छुड़ाकर ले जाऊंगी। बता मुझे, क्या हुआ तेरे साथ? तुझे किसने फँसाया है? मैं जानती हूँ तुम मक्खी भी नहीं मार सकती फिर इंसान को कैसे मारेगी! ज़रूर कोई षड्यंत्र रचा गया है तेरे ख़िलाफ़। मुझे बता कौन है।"
भावावेश में नैना जाने क्या-क्या कह गई। माधवी दूर कहीं देखती हुई बोली- "नैना तू सुन सकेगी? जिस समय तू सारी बात जान लेगी, मेरी तरह मौन रह जाएगी।"

नैना ने जल्दी-जल्दी अपने फ्लैट का ताला लगाया और उचटती-सी एक निगाह अपनी साड़ी की प्लेटों पर डाली। सब ठीक ही लगा। खटखट करती सीढ़ियाँ उतर गई। जैसे ही अहाते से बाहर क़दम रखा- "पागल है, पगली है" का शोर उसके कानों से टकराया। उसने शोर की दिशा में घूमकर देखा। भीड़ लगी थी, बच्चे-बूढ़े-औरतें सभी थे। जल्दी में भी अचानक पैर उस भीड़ की ओर मुड़ गए जबकि मन कह रहा था कि यहाँ तो कोई दिन ही छूटता होगा, जब कोई ऐसा बावेला न मचता हो। लौटने तक सबकुछ शांत हो जाएगा या कोई नया तमाशा हो रहा होगा।

ऐसी भीड़ों से अक्सर ही उसका सामना होता था। अपने गंतव्य तक पहुँचने-पहुँचते ऐसे दो-चार हादसे ज़रूर सामने पड़ जाते थे और वह निर्लिप्त भाव से आगे बढ़ जाती थी। भीड़ के चंद शब्द उछलकर उसके कानों में टकरा जाते थे। कभी कोई शराबी या चोर उचक्का होता था तो कभी कोई राहज़नी करने वाला।
तभी नैना के कानों में पड़ा- "बेचारी किसी बड़े घर की दिखती है।"

उसने आवाज़ की दिशा में मुड़कर कहने वाले को देखना चाहा लेकिन जब तक नज़र वहाँ पहुँचती, वाक्य होठों से फिसल चुका था और होंठ चुप हो चुके थे। जाने कहाँ से नैना में उत्सुकता बढ़ गई। उसने भीड़ के पीछे से अपने पंजों के बल उचककर देखा- "अरे यह तो माधवी है!" चौंक उठी वह। क्या हो गया है इसे, ऐसे इस हालत में कैसे पहुँच गई! एक ही पल में नैना कहाँ से कहाँ तक पहुँच गई।

दस साल पहले माधवी को सेंट्रल जेल में देखा था। पति के खून के इल्ज़ाम में आजीवन क़ैद मिली थी। उसने अपना अपराध मौन होकर स्वीकार कर लिया था। सरकारी वकील भी उसका मौन नहीं तोड़ पाए थे। उसने किसी बात का उत्तर नहीं दिया था। तारीख पड़ती रही थी लेकिन हर प्रश्न के उत्तर में माधवी नीचे निगाह किए ज़मीन ही ताकती रही। हार कर वकील ने उससे उसके किसी निकट संबंधी का पता जानना चाहा तब माधवी ने उसका पता बताया था।

अपने नाम किसी वकील के पत्र को देखकर चौंक उठी थी वह। मन घबराने लगा था। ढेरों शंकाएँ मेघ-सी उसके मानस पटल पर घुमड़ कर आई थीं। जब तक उंगलियों ने लिफ़ाफ़ा खोला था तब तक उसका मन जाने कैसा-कैसा होता रहा था। एक ही साँस में वह पत्र पढ़ गई थी। लिखा था-
"नैना देवी, बहुत पूछने पर श्रीमती माधवी देवी ने केवल आपका नाम बताया है। वह अपने पति की हत्या के आरोप में सेंट्रल जेल महिला बैरक नंबर 25 में है। इस हत्या के बारे में कुछ नहीं बताती। यदि नहीं बताएँगी तो अदालत एक तरफा फैसला सुना देगी। मृत्युदंड न सही, आजीवन कारावास तो मिल ही जाएगा। यदि आप उनसे मिलकर कुछ जान सकें और मुकदमे पर रोशनी डालकर क़ानून की मदद कर सकें तो आपका आभारी रहूँगा। रविवार को प्रातः 11:00 बजे मिल लें। मैं आपका इंतज़ार करूँगा।"


नीचे वकील के हस्ताक्षर थे। पत्र पढ़कर उसे विश्वास नहीं हुआ था कि माधवी जैसी मेधावी और सुसंस्कृत लड़की, जो एक मरा हुआ चूहा भी उठाकर नहीं फेंक सकती थी, किसी से कठोर नहीं बोल सकती थी, वह भला एक आदमी का खून कैसे कर सकती है और आदमी भी वह, जो उसका पति था। उसे विश्वास नहीं हुआ कि यह वही, उसकी जानी-पहचानी सहेली माधवी है या कोई और। अपनी शंका के निवारण के लिए उसने पत्र की इबारत फिर पढ़ी। एडवोकेट श्री मनोहर लाल की बेटी माधवी। यह चंद शब्द उसकी आँखों के सामने से कई बार गुज़रे और दिमाग़ में गढ़ गए। मनहर अंकल की बेटी माधवी ही तो उसकी सहेली है लेकिन वह इस शहर में क्यों आई! अपने आने की सूचना क्यों नहीं दी! वह तो पुणे में थी यहाँ कैसे?

माधवी से मिले उसे कई साल हो गए थे। उसने उंगलियों पर हिसाब लगाया, समय कितनी तेज़ी से बीत जाता है। कॉलेज में साथ-साथ पढ़ने की बात जैसे कल की बात हो। माधवी उसकी अंतरंग सहेली थी। दोनों के घनिष्ठ पारिवारिक संबंध थे। दोनों साथ-साथ पढ़ीं और इत्तफाक से एक महीने के आगे-पीछे दोनों का विवाह भी हो गया।

विवाह के बाद एक-दूसरे की ससुराल भी देखी। पत्रों का आदान-प्रदान रहा। गृहस्थी की ज़िम्मेदारियाँ उठाते-उठाते दोनों सहेलियाँ आपस में इतनी दूर हो गयीं कि पत्र लिखने की भी फुर्सत नहीं मिली। नैना को जब से बैंक की नौकरी मिली थी, उसकी तो दिनचर्या ही बदल गई थी। घर और दफ्तर के बीच की दूरी में माधवी के पत्र उत्तर के इंतज़ार में कल पर टलते रहते और टलते-टलते एक दिन कचरे की टोकरी में पहुँच जाते। कभी मायके जाना होता या मायके से कोई आता तो वह नपे-तुले शब्दों में कुशल क्षेम बता जाता।

तभी विवाह के सात साल बाद माधुरी के पति सुधाकर का एक सड़क दुर्घटना में देहांत हो गया। उस समय माधवी की बेटी लतिका छः वर्ष की थी। सुनकर वह दौड़ गई थी। माधुरी तो जैसे जीवित ही लाश बन गई थी। वह उस समय ही रही थी कुछ दिन माधवी के पास, उसे हिम्मत बँधाई थी। उसे लतिका के जीने के लिए जीने का वास्ता दिया था और तभी मनहर अंकल उसे अपने साथ लिवा ले गए थे।

फिर सुना था उसने कि माधवी को सुधाकर की जगह नौकरी मिल गई है। उन्हीं दिनों माधवी ने उसे लिखा था-
"नैना जीवन को घसीटने का माध्यम मिल गया है। शायद इसी बहाने अपनी निरीहता को ढो सकूँ। यहाँ कोई नहीं चाहता कि मैं नौकरी करूँ। केवल पिताजी ही हिम्मत बँधा रहे हैं। मुझे भी लगता है कि अपना सफर अपने पैरों पर चलकर पूरा करना चाहिए।"

तब नैना को तसल्ली हुई थी कि चलो ठीक ही हुआ। सारा समय सुधाकर की याद में बैठकर आँसू बहाने और सबकी नज़रों में बेचारी बनने से तो बेहतर होगा। वह जब तक पत्र लिखकर इसकी कुशलता जानती रहती। यह बात उन दिनों की है जब वह देहरादून में थी।

दो साल बाद उसे सूचना मिली कि मनोहर अंकल ने माधवी का पुनर्विवाह कर दिया है और लतिका को अपने पास रख लिया है। नैना ने मुक्ति की साँस ली जैसे उसके स्वयं के कंधों से उत्तरदायित्व का बोझ उतर गया हो क्योंकि सुधाकर की मृत्यु के बाद वह जब भी माधवी से मिली, वह अजीब से संकोच में घिरी रहती। सूनी मांग, सूनी कलाइयाँ, उजड़ा-सा चेहरा देख वह भी हँसना भूल जाती, शब्द जम जाते, वह भूल जाती कि कहाँ से शुरू करें। सज-धज कर माधुरी के सामने जाना उसने छोड़ दिया था। वह वरदान को भी साथ न ले जाती। लौटती तो उसका दामन भी उदासियों से भर जाता।

तब नैना ने एक गहरी साँस छोड़ी जैसे समस्त उदासियों को निकाल फेंका हो। फिर माधवी को एक पत्र लिखा था तथा लतिका के नए पिताजी का एक संयुक्त फोटो भी मँगवाया था।

वक़्त आराम से गुज़रता रहा। सहेलियों का मिलन अब काफी कम हो गया था। माधवी अभी भी नौकरी कर रही थी। उसका पति सहकर्मी ही था। इस विवाह के दो साल बाद ही माधवी की माँ गुज़र गई और लतिका माधवी के पास आ गई। उस समय तक लतिका दस साल की हो चुकी थी।

सुना था कि माधवी का दूसरा पति सुमंगलम चरित्र का अच्छा नहीं था। उसने माधवी के साथ रूप, पैसा और कमाऊ पत्नी देखकर ही विवाह किया था। विवाह के बाद सारा पैसा अपने नाम से फिक्स कर लिया था। माधवी जो कमाकर लाती, सबका हिसाब वही रखता। सुमंगलम की तानाशाही वह चुपचाप सहती रही। काफी समय बाद माधवी का पत्र मिला था।

नैना मैंने तो कभी किसी को कष्ट नहीं पहुँचाया फिर मुझे इतने दुख क्यों मिल रहे हैं? क्या मैं अपने-पराए की पहचान भूल गई हूँ या अपने पराए हो गए हैं? क्यों ऐसा हो जाता है नैना? मैंने जिसे फूल समझकर अपने बालों पर सजाना चाहा, वह काँटों का हार बन गले में पड़ गया है। उतार कर भी तो नहीं फेंक सकती। तुझे आने को नहीं कहूँगी। मैं ही समय निकालकर तेरे पास आऊंगी तभी मन हल्का कर सकूंगी। लतिका आठवीं कक्षा में आ गई है।

वह इंतज़ार करती रही पर माधवी भी नहीं आई। फिर धीरे-धीरे नैना माधवी का आना भी भूल गई। कई बार ध्यान आया कि माधवी को पत्र लिखे लेकिन घर की उलझनें ही इतनी थीं। फिर अचानक एक दिन वकील का पत्र पाकर चेतना शून्य हो गई।

शाम को लौटे वरदान के सामने वह पत्र नैना ने रख दिया। पत्र पढ़कर वह भी विस्मित रह गए। फिर नैना के कंधे थपथापा कर बोले- "चिंता मत करो नैना। मैं स्वयं तुम्हारे साथ चलूंगा। तुम माधवी से बातें करना, मैं वकील से।"

पत्र आने और माधवी से मिलने के बीच दो दिन का समय था। यह दो दिन दो साल जैसे लगे। दिन-रात हर पल वह केवल माधवी के बारे में सोचती रहती- कैसे रहती होगी वह जेल में? ज़मीन पर सोना, जेल की रोटियाँ खाना, तरह-तरह के अपराधियों के बीच रहना, मानसिक और शारीरिक यंत्रणा झेलना, क्या आसान है? पता नहीं किस प्रकार जीवित है? मन होता वह दौड़ जाए और माधवी को अंक में भर ले और अपने यहाँ ले आए फिर कभी न जाने दे।

रविवार को जल्दी-जल्दी सारा काम उसने दस बजे से पहले निपटा लिया फिर वरदान के साथ स्कूटर पर बैठकर वहाँ पहुँच गई थी, जहाँ उसकी सहेली क़ैद थी। पूरे रास्ते दोनों चुप रहे थे। कहने-सुनने के लिए जैसे कुछ बचा ही न था। वकील ने ही उनके मिलने की व्यवस्था कराई थी।

बिखरे रुखे केश, आँखों के नीचे स्याह गड्ढे, नंगे पांव, सूती खद्दर की जेल की साड़ी पहने कमरे के कोने में चुपचाप ज़मीन पर बैठी माधवी को देखा, उसका कलेजा मुँह को आ गया।

संतरी ने जैसे ही ताला खोला, नैना ने दौड़कर माधवी को बाँहों में भर लिया। यह सब क्या हो गया माधवी? तू यहाँ कैसे आ गई? तूने एक बार मुझे लिखा होता!" नैना ने अपने आँसुओं से माधवी का कंधा भिगो दिया लेकिन माधवी जैसे पत्थर बनी रही।

"तुझे यहाँ नहीं रहने दूँगी माधवी! तू मेरे साथ चलेगी। तुझे अभी जमानत पर छुड़ाकर ले जाऊंगी। बता मुझे, क्या हुआ तेरे साथ? तुझे किसने फँसाया है? मैं जानती हूँ तुम मक्खी भी नहीं मार सकती फिर इंसान को कैसे मारेगी! ज़रूर कोई षड्यंत्र रचा गया है तेरे ख़िलाफ़। मुझे बता कौन है।"
भावावेश में नैना जाने क्या-क्या कह गई। माधवी दूर कहीं देखती हुई बोली- "नैना तू सुन सकेगी? जिस समय तू सारी बात जान लेगी, मेरी तरह मौन रह जाएगी।"

नैना अपने लुढ़कते आँसुओं के बीच माधवी के बोल सुन स्तंभित रह गई। "तुझे सब सुनने को ही बुलाया है। मेरी बात सुनकर यदि तू वकील को बता सके तो अवश्य बताना और न बता सके तो फिर मुझसे मिलने इस जेल में कभी मत आना। मैं चाहती हूँ कि मैं मौन रहूँ और मुझे फाँसी हो जाए। मैं अपने मानसिक तनाव से मुक्त हो जाऊँ।"

सुमंगलम का खून मैंने ही किया है। आज से छः महीने पहले उसका तबादला यहाँ हो गया था। मेरा नहीं हुआ था लेकिन सुमंगलम के तबादला होते ही मैंने भी अपने तबादले के लिए अर्जी दे दी थी। आजकल-आजकल करते चार महीने निकल गए। इधर लतिका को भी दाखिला दिलाना था। सुमंगलम लतिका को अपने साथ ले आया।

मैं भी बीच-बीच में आकर दो-चार रोज़ रह जाती। पिता-पुत्री में अब ख़ूब पटने लगी थी। लतिका भी ख़ुश रहती। सुमंगलम उसके लिए नई-नई कीमती पोशाकें लाता। लतिका पहनकर सुमगलम् के गले से लिपट जाती और पूछती कैसी लग रही हूँ।

सुमंगलम उसका कंधा दबाते हुए कहता- "बहुत अच्छी, बहुत सुंदर" उसकी आँखें चमकने लगतीं और वह लतिका को चूम लेता। इस चमक को देख मैं चौंक पड़ी थी।

मैने लतिका को टोका था- "लतिका तुम बच्ची नहीं रही हो। भला कोई ऐसी लिपटता है।"
"मम्मी तुम्हें क्या हो गया है! क्या अच्छा लगता है और क्या नहीं मुझे सब मालूम है। मैं अब बच्ची नहीं हूँ।" और पैर पटकती वह वहाँ से चली गई थी।
सुमंगलम ने मुझे डांटा। अच्छी-भली बच्ची का मूड ख़राब कर दिया। ये उसके हँसने-खेलने के दिन हैं। इतनी टोका-टाकी ठीक नहीं। फिर तुम यहाँ नहीं रहती।

मुझे भी अफसोस हुआ कि व्यर्थ ही लतिका को टोक दिया। मैं लौट आई। क़रीब महीने भर बाद दोबारा लौटी थी वहाँ। मैंने आने की सूचना नहीं दी थी। सोचा अचानक लौटकर इन्हें आश्चर्य चकित कर दूँगी।

शाम के 6:00 बजे थे। सफर की थकान से घर के दरवाज़े पर पहुँचकर अभी मैंने घंटी पर उंगली रखी रही थी कि तभी मुझे अंदर से सुमंगलम के खिलखिलाने की आवाज़ सुनाई दी। मैंने खिड़की से झाँक कर देखा कि वह लतिका के साथ यौनाचार में लिप्त था।

मैं घंटी बजना भूल गई। दरवाज़े पर हाथ रख तो दरवाज़ा खुल गया। मैंने रसोई से चाकू उठाया और सुमंगलम की गर्दन पर वार कर दिया। वह एक ही बार में ढेर हो गया। सबकुछ इतना अप्रत्याशित था कि किसी को संभलने का मौका नहीं मिला।

तू बता कि कटघरे में सबके सामने खड़ी होकर कैसे कह दूँ कि मैंने सुमंगलम का खून इसलिए किया कि उसने मेरी बेटी को मेरी सौत बना दिया था। नैना ने देखा कि कहते-कहते माधवी उत्तेजित हो उठी है। उसने धीरे-से माधवी के कंधे को दबाया और चुपचाप उठकर बाहर आ गयी।

वरदान और सरकारी वकील पूछते ही रह गये लेकिन नैना भी हर प्रश्न के उत्तर में मौन ही रही। हारकर उसे कहना पड़ा- "मुझे माफ़ करें। वकील साहब मैं आपकी और क़ानून की कोई मदद नहीं कर पाऊँगी। जो भी फैसला होगा, देखा जाएगा।"

वरदान के साथ नैना लौट आई थी। वरदान के पूछने पर उसने संक्षिप्त में सब बता दिया था। सुनकर वरदान भी अचंभित रह गया था। काफी समय तक वह उदास रही थी। वकील से ही मालूम हुआ कि माधवी को आजीवन कारावास की सज़ा हुई है।

नैना माधवी के लिए तड़पती रही थी लेकिन माधवी द्वारा किए गए इनकार के कारण वह दोबारा मिलने नहीं गई थी। कई बार उसे लतिका का ध्यान आया था। वह उसके पते पर गई थी लेकिन वहाँ पर ताला लगा पाकर लौट आई थी।

वक़्त गुज़रता गया। वह कानपुर से मेरठ आ गई। यादें धुंधला गयीं।

इतना सब सोचते-सोचते भीड़ को चीरती वह माधवी के पास जा पहुँची। भीड़ के ऊपर एक नज़र डालकर तेज़ आवाज़ में बोली- "क्यों किसी औरत की असहायता का मेला लगा रखा है, जाओ सब यहाँ से।"

भीड़ धीरे-धीरे खिसकने लगी। माधवी को सहारा देकर नैना अपने फ्लैट की ओर ले चली। कुछ मनचले वहीं खड़े उसे जाते देखते रहे और फब्तियाँ कसते रहे लेकिन उसने किसी की भी परवाह नहीं की।

नैना ने माधवी को ले जाकर नहलाया, कपड़े बदले फिर उसे नाश्ता कराया। तृप्त होकर माधवी किसी नन्हीं बच्ची-सी सो गई।
दो घंटे बाद माधवी की नींद टूटी। उसे सामने बैठी नैना को देखकर आश्चर्य हुआ- "तू नैना है ना! मैं यहाँ कैसे पहुँची?"
"कैसे भी नहीं, बस रास्ते में मिल गई और मैं तुझे ले आई।"
"तू मेरी कितनी सहायता करेगी नैना? अपने दुःख मुझे ख़ुद झेलने होंगे।"
"तू मुझे भी साझीदार बना लें। भार थोड़ा कम हो जाएगा।"
"तू मुझे यहाँ क्यों ले आई नैना, मैं तो फुटपाथ के योग्य हूँ। मैंने घृणित अपराध किया है। हत्या की है। कोई औरत भला अपने पति को मार सकती है लेकिन मैंने मारा है।"
"तू जानती है जब मैं जेल से छूटकर लतिका को ढूँढते उसके पास पहुँची तो क्या कहा उसने? उसने मुझे देखकर दरवाज़ा बंद करना चाहा। मैंने आगे बढ़कर दरवाज़ा रोक लिया और कहा- "तू मुझे नहीं पहचानती मैं तेरी माँ हूँ।"
"मेरी कोई माँ नहीं है। मैं किसी माँ को नहीं जानती।" कहते हुए उसने घृणा से मुँह फेर लिया।
"मैं बड़ी उम्मीद से तेरे पास आई थी बेटी।" मैं कातर हो उठी।
"किसकी बेटी, कैसी बेटी? क्या हक़ था तुम्हें उसे मारने का?"
"वह तेरा बाप था।"
"वह मेरा बाप नहीं था।"
"वह मेरा पति था और मैं तेरी माँ हूँ।"
"मेरी माँ का पति मेरा पिता हो यह ज़रूरी नहीं है।" कहकर उसने भड़ाक से दरवाज़ा बंद कर लिया।
"मैं तबसे विक्षिप्त-सी अपनी क़ैद में भटक रही हूँ। उम्र क़ैद वह नहीं, यह है नैना! मुझे फाँसी क्यूँ नहीं हो गई थी?" कहते-कहते माधवी जाने के लिए उद्यत हुई।

नैना ने उसे हाथ पकड़कर बिठाया और बोली- "माधवी, कुछ लोग मन से पीड़ित होते हैं। सुमंगलम और लतिका इसका उदाहरण हैं। बीमार लोगों के लिए परेशान नहीं होते। अपनी सज़ा भोगनी है तो यहीं रहकर भोग। कहीं जाने की ज़रूरत नहीं है।"

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रचनाकार परिचय

सुधा गोयल

ईमेल : sudhagoyal0404@gmail.com

निवास : बुलंदशहर (उत्तरप्रदेश)

संपर्क- 290-ए, कृष्णानगर, डॉ० दत्ता लेन, बुलंदशहर (उत्तरप्रदेश)- 203001
मोबाइल- 9917869962