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पिता के नायकत्व पर विमर्श करती ग़ज़लें: उँगली कंधा बाजू गोदी- अखिलेश श्रीवास्तव

पिता के नायकत्व पर विमर्श करती ग़ज़लें: उँगली कंधा बाजू गोदी- अखिलेश श्रीवास्तव

जो नई-नवेली-सी बात यह संग्रह पढ़कर मेरे मन में उभर रही है, वह बेटियों की दृष्टि से पिता को देखने को आतुर है। पुत्र समयातीत होते हुए पिता भी होता है। उसके लिए पिता पर लिखना अपनी ही भूमिका को शब्द देना है पर बेटियाँ जब पिता पर लिख रही हैं तो उन्हें भाव के समंदर पर ही पूरी कविता लिखनी है। कथ्य और भाव का अंतर बच ही नहीं सकता, पिता के लिए बेटी के पास जो भाव होते हैं, वो बेटे के भाव से अलग हैं।

भवेश दिलशाद के संपादन में उँगली कंधा बाजू गोदी संकलन इस दौर की ग़ज़लों में पिता की तफ़्तीश करता संकलन है। पिता पर आधारित कविताओं का संकलन सतीश नूतन लेकर आ चुके हैं। उसके पहले कुमार अनुपम भी पिता पर एक काव्य संकलन संपादित कर चुके हैं, 'ओ पिता' शीर्षक से भी एक और संकलन आया, जिसमें छंद मुक्त के साथ छंद बद्ध रचनाएँ भी थीं पर ग़ज़लों में पिता की उपस्थिति नज्मों, कविताओं जितनी ही है या नहीं, यह ठोस तौर पर कहा नहीं जा सकता था। ग़ज़लों में पिता दर्ज तो हो रहे थे पर यह पड़ताल नहीं हो पा रही थी कि वह कितने मुक्कमल तौर से दर्ज हो रहे हैं, कितने छूट रहे हैं, ख़ालिस मर्द की तरह दर्ज है या माँ के महबूब की तरह, स्वप्न लोक की तरह या यथार्थ की तरह। महबूब की भाषा कही जाने वाली ग़ज़ल में पिता रोमानी अनुवाद होकर किस तरह आ सकते हैं जबकि उनकी पूरी शख्सियत ही खुरदरी होती है! मुलायम-सा प्रेम होता भी है तो सतह के नीचे-नीचे सरस्वती नदी-सा बहता हुआ, जिसका होना शोध में है, दर्शन में नहीं है।

तथ्य है कि ग़ज़ल फ़ारसी के रास्ते हिंदवी में आई, इतिहास से यह मिला कि राजाओं के यहाँ बाप-बेटे के रिश्ते सामान्य नहीं रहे। वो राज्य उत्तराधिकार के अधीन रहे, हमारे पास औरंगज़ेब व शाहजहाँ की कहानियाँ हैं। हैं तो बाबर और हूमायूं की भी पर समय ऐसा रचा गया कि शाहजहाँ की क़ैद और उसका कलपना याद रह गया। अब प्रश्न यह है कि इतिहास ने जो दर्ज़ किया, साहित्य उससे इतर भी कुछ नोट कर रहा था या नहीं? ग़ज़ल, जो मुख्य विधा थी उस समय, उसमें एक आम पिता बेटे का रिश्ता हूकूमती बाप बेटे जैसा था या वह पटरी, दरी जुटाते, मेला घुमाते पिता जैसा था! यह संग्रह ऐसे ही आम-से, गमछा बांधे पिताओं को दर्ज़ करता है। तख़्त-ताजों वाले पिता इतिहास की किताबों में रहें।

‌अमूमन किसी विषय आधारित संग्रह से गुज़रते हुए एक बोरियत तारी हो जाती है। एक ही तरह के भाव कई कविताओं, ग़ज़लों में यत्र-तत्र बिखरे होते हैं, जिससे एक उदासीपन संग्रह पर तारी हो जाता है पर उँगली कंधा बाजू गोदी से गुज़रते हुए आप उदासी से नहीं, उल्लास से गुज़रते हैं क्योंकि इसमें सतह के नीचे के स्नेह को उतरा दिया गया है, अनकहे को कहा गया है, हर्फ़ चिराग़ की शक्ल लेकर छितराये हुए हैं। उनकी रोशनी हमारे जन्म से लेकर अब तक के सफ़र में पिता की भूमिका को एक नई दृष्टि से रोशन कर देती है। इस संग्रह में राजा सिरसीवी, वसीम बरेलवी, उर्मिलेश, अशोक अंजुम, आलोक श्रीवास्तव, ओमप्रकाश यती, महेश कटारे सुगम, डी०एम० मिश्र, भवेश दिलशाद आदि अनेक ग़ज़लकारों की गजलें हैं पर मैं इन बड़े कलमकारों की छाँव में इस संग्रह का ताप महसूस नहीं करता और अगर करता भी हूँ तो इस पर बात कुछ ठहर कर करूँगा, क्योंकि जो नई-नवेली-सी बात यह संग्रह पढ़कर मेरे मन में उभर रही है, वह बेटियों की दृष्टि से पिता को देखने को आतुर है। पुत्र समयातीत होते हुए पिता भी होता है। उसके लिए पिता पर लिखना अपनी ही भूमिका को शब्द देना है पर बेटियाँ जब पिता पर लिख रही हैं तो उन्हें भाव के समंदर पर ही पूरी कविता लिखनी है। कथ्य और भाव का अंतर बच ही नहीं सकता, पिता के लिए बेटी के पास जो भाव होते हैं, वो बेटे के भाव से अलग हैं। एक तो पिता-पुत्री के रिश्ते में सामीप्य और दूरी दोनों होती हैं। विरह को प्रेमिका और पत्नी का शब्द माना गया है, वह विरह चर्चित है पर सबसे स्थायी, दीर्घ और शाश्वत विरह बेटी और पिता का होता है। शादी के बाद वह पिता से दूर है। बीस-पच्चीस साल के सान्निध्य को जीवन पर्यन्त बेटियाँ ताज़ा किये रहती हैं। यह स्मृति बेटों से लगभग तिहाई है पर लिखावट में वह पूरे जीवन विस्तार से हर्फ़ उठाती हैं। पिता के लिए जो उत्कट इच्छा बेटियों में है, वह समर्पण किसी और रिश्ते में नहीं है। पति-पत्नी में भी नहीं, पत्नी के भी घर, संपत्ति के अधिकार होते हैं, बेटियाँ इससे रहित हैं। फिर भी भाव के तंतु कहीं कमज़ोर नहीं पड़ते, वो क्या किये, क्या दिये का आलाप नहीं गाती बल्कि एक छोईचां भर से अघा जाती हैं। एक रिश्ता, जो सिर्फ भाव से बना है उसका मूर्त रूप कैसा होगा, चित्र उकेरा जाए तो निश्चित ही पिता बेटी का रिश्ता ही सबसे क़रीब बैठेगा।

बेटियाँ इस संग्रह में अपने सबसे सिद्ध हीरो की कहानी लिख रही हैं। वो उनके बहाने धर अपने पंख लिख रही हैं, परवाज़ लिख रही हैं, एक ज्ञापन भी कि तुम थे तो कुछ आस जगी, जिसे हम पितृसत्ता कहते हैं और हर तरह से एक रोड़ा मानते हैं स्त्री उत्थान में, बेटी इस सत्ता के चरम को सबसे सार्थक हस्तक्षेप मान रही हैं। वे इसके मोह में हैं और पूरी चेतना में है वह उलाहना नहीं धर रही कि तुमने अपना मन बाँटा पर धन नहीं बाँटा, वह इसी को अहोभाग्य कह रही हैं कि पटरी, पेंसिल, साड़ी, सिंदूर का इंतज़ाम रखा। पिता से इन मामूली-सी वस्तुओं को वस्तु की तरह नहीं लेती, जीवन भर के स्मृति भाव की तरह लेती हैं। एक कंघी भी पिता कब लाये, उसकी स्मृति जीवनपर्यन्त रहती है। उस कंघी के इर्द-गिर्द एक कहानी गढ़ लेती हैं, जिसमें सिर्फ दो किरदार हैं, वो और उसके पिता। कब किस त्यौहार पर पिता ने माला दिलाई, किस त्यौहार पर जूती, उसका उत्सव बिटिया जीवन भर मनाती हैं। माला टूट गयी, जूती घिस गयी पर पिता के हाथों की गयी ख़रीदारी की ख़ुशी जस की तस है। वह ख़ुशी अब आयाम है, बाक़ी ख़ुशियों की लंबाई-चौड़ाई उसी को आधार बनाकर मापती हैं बेटियाँ। पति के दिलाये उपहारों में नुक्स हो सकता है पर पिता के दिलाये समानों में नहीं। पति की लाई बनारसी साड़ी के धागे में खुरदुरापन दिख जायेगा पर पिता की ली पियरी में वो जीवनभर मलमल देख लेती हैं। एक प्रश्न यह भी कि जिस पितृसत्ता को आधार बनाकर स्त्री विमर्श साहित्य का मेयार रचता है उसके नायक पर बेटियाँ फ़िदा क्यों हैं? वह अपने हक़-हकूक के लिये लाठी से बाप का सर क्यों नहीं फोड़ दे रही? जैसे बेटे कर रहे हैं उन्हें बूढ़े पिता से अपने बच्चों जैसी मुहब्बत क्यों है? मानव इतिहास में एक भी ऐसा उदाहरण नहीं, जिसमें बेटी ने पिता को बंदी बनाकर कारागार में डाल दिया हो, तो क्या बेटियाँ पिता को पितृ सत्ता का अंग नहीं मानती? वो इसे प्रपंच कह रही हैं, उससे लड़ने-भिड़ने का तर्क वो प्रेम से काट दे रही हैं। साथ रहने, छूट जाने, बिछड़ जाने से लेकर मर जाने तक इस रिश्ते में नेह ही नेह है। प्रेम की उम्र इतनी ही होती होगी, इससे दीर्घ प्रेम और किस रिश्ते में बचा होगा!

इस संग्रह में भवेश ने इस बात का यथोचित ध्यान रखा है कि पुत्र और पुत्रियाँ दोनों के भाव एक साथ समेटे जाएँ, पर इसमें जो नयापन है वह यूँ है कि बेटियों की क़लम ने पिता के भाव को इस तरह से पकड़ा है कि ग़ज़लों का यह आयोजन पिता के प्रति भाव का आयोजन बन गया है। संग्रह में अनामिका अना हैं, अनीता मौर्य हैं, डॉ० कविता विकास हैं, डॉ० जेबा फ़िज़ा हैं, डॉ० भावना हैं, मालिनी गौतम हैं, मिथिलेश बड़गईयाँ हैं, श्वेता ग़ज़ल हैं, संजीदा ख़ानम हैं, सीमा विजयवर्गीय हैं, अनिता मंडा हैं, सीमा शर्मा हैं। सबने मिलकर इसे भाव का संग्रह बना दिया है। पिता के तिरस्कार पर एक शेर भी न होना बताता है कि इस रिश्ते की जान बाक़ी है। इसे ज़माने की हवा नहीं लगी है। अभी भी पिता पर प्रश्न नहीं है। सबको पढ़ना तो संग्रह से ही संभव है पर मिथिलेश, अनिता मंडा और आशा जी की ग़ज़लों के प्रमुख शेर यहाँ रख रहा हूँ ताकि आप इनकी उँगली पकड़ पिता के कंधे, गोदी तक पहुँच सकें।


चाहत का अख़बार हमारे बाबूजी
मीठी-सी फ़टकार हमारे बाबूजी
जनक जानकी-सा उनका मेरा नाता
नेह नर्मदा धार हमारे बाबूजी

- मिथिलेश बडगइयाँ

मिली आवाज़ घर को माँ से घर के कान बाबूजी
बसी है जान घर की माँ में माँ की जान बाबूजी
गमों की आहटें सुनकर कभी घबराए घर का मन
अँधेरा दूर कर दे घर का रोशनदान बाबूजी

- अनिता मंडा

कितने आबाद थे कभी बाबा
घर की बुनियाद थे कभी बाबा
माँ को शीरी कहकर चिढ़ाते थे
उसके फ़रहाद थे कभी बाबा

- आशा पांडेय ओझा

 

समीक्ष्य पुस्तक- उँगली कंधा बाजू गोदी
संपादन- भवेश दिलशाद
प्रकाशक : श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली
संस्करण- प्रथम, 2023

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रचनाकार परिचय

अखिलेश श्रीवास्तव

ईमेल :

निवास : जे०पी० नगर

जन्मतिथि- 14 फरवरी
जन्मस्थान- गोरखपुर (उ०प्र०)
शिक्षा- केमिकल इंजिनियरिंग में स्नातक
संप्रति- प्रतिष्ठित भारतीय बहुराष्ट्रीय संस्थान में वरिष्ठ प्रबंधक
प्रकाशन- दीपक अरोड़ा पांडुलिपि प्रकाशन योजना के अंतर्गत चयनित प्रकाशित काव्य संग्रह 'गेंहू का अस्थि विसर्जन और अन्य कविताएँ', साझा संकलन दशक के कवि (संजय कुंदन), अंधेरे में पिता की आवाज़ (सतीश नूतन), यह समय है लौटाने का (गनेश गनि) में कविताएँ संकलित, कविता कोश और हिंदवी पर कविताएँ, समयांतर एवं किस्सा कोताह में कविताएँ
निवास- बी 10/1, ऑफिसर्स कॉलोनी, गजरौला, जे०पी० नगर
मोबाइल- 9528116192