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नरभक्षी आदिमानवों के बीच- रवि ऋषि

नरभक्षी आदिमानवों के बीच- रवि ऋषि

चारों ओर आकाश को लगभग छूते हुए-से पेड़। इससे पहले मैंने अपने जीवन में इतने ऊँचे और विशाल वृक्ष कभी नहीं देखे थे। पेड़ों के आसपास अद्भुत किस्मों की अत्यधिक घनी झाड़ियाँ आपस में इस तरह से गुत्थम-गुत्था थीं कि हवा को भी बीच में से निकलने में अपनी पूरी शक्ति झोंकनी पड़े। जैसे-जैसे हमारी कार उस बीहड़ वन में आगे बढ़ रही थी, रोमांच से हमारे रोंगटे खड़े हो रहे थे। मुझे बचपन में पढ़े हुए वेताल के चरित्र वाले सैकड़ों कॉमिक याद आ रहे थे।

सबसे पहले हम रॉस आइलैंड पहुँचे। चारों ओर समुद्र से घिरा हुआ एक बहुत सुन्दर द्वीप। लगभग पाँच सौ की आबादी वाले इस टापू को किसी समय गोरे अपनी आरामगाह के तौर पर इस्तेमाल करते थे। वहाँ के रखरखाव एवं सौंदर्यीकरण का काम भारतीय गुलामों द्वारा किया जाता तथा सभी सुविधाओं से लैस इस जगह पर गोरे केवल मस्ती करते। यह जगह इतनी ख़ूबसूरत थी कि किसी समय इसे पेरिस ऑफ द ईस्ट कहा जाता था। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान यहाँ का सारा वैभव जापानियों की भीषण गोलाबारी से ध्वस्त हो गया। वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि ये द्धीप आड़े नहीं आता तो हाल की सुनामी में पोर्ट ब्लेयर का नामो-निशान मिट जाता।

रॉस आइलैंड से लौटकर हम लोग दोबारा एक फेरी में बैठकर नॉर्थ बे द्वीप की और चले। वैसा ही छोटा-सा द्वीप, जहाँ घूमने का तो कोई स्थान नहीं था; केवल कुछ जल-क्रीड़ाएँ करवाई जा रही थीं। अब हमारी उड़नपरी, जलपरी बनने पर आमादा थी। स्कूबा डाइविंग को तैयार। बहुत ही शालीन गोताखोरों द्वारा पहले एक ट्रेनिंग का दौर और फिर हमारी बिटिया आधे घंटे के लिए समुद्र की रहस्यमयी दुनिया में विचरण करने पानी में अंतर्ध्यान हो गयी। साँस लेने को वह तो अपने साथ ऑक्सीजन सिलिंडर ले गयी थी लेकिन बाहर हम लोगों की साँसें उसके बाहर आने तक रुकी रहीं। बेटी की ज़िद की वजह से हमें जेट् स्की भी करनी पड़ी।

होटल में लौटकर हम जल्दी सो गए क्योंकि अगले दिन सुबह 3:30 पर हमें एक बहुत ही रोमांचक यात्रा पर निकलना था।


सुबह लगभग तीन बजे होटल के कमरे के नीचे हॉर्न की आवाज़ ने बता दिया कि जॉय कार लेकर तैयार है। होटल के रिसेप्शन से कुछ सैंडविच पैक करवा कर हम लोग कार में बैठे। कार तेज़ी से ठंडी सड़कों पर दौड़ने लगी। पोर्ट ब्लेयर नाम का वह हरा-भरा द्वीप किसी मासूम से बच्चे-सा नींद के आगोश में बेसुध पड़ा था। कोई नाईट लाईफ वाईफ नहीं, शांत और ख़ूबसूरत रात अपने पूरे यौवन पर। जल्दी ही हम शहर की बाहरी सीमाओं पर अप्रत्याशित रूप से लम्बे-लम्बे पेड़ों के बीच से गुज़र रहे थे। अंदर ही अंदर बहुत सहमे हुए भी। अनजान, सुनसान रास्तों पर एक लगभग अजनबी ड्राईवर के साथ कार में गुमसुम बैठे एक बिलकुल अपरचित मंज़िल की ओर बढ़े जा रहे थे हम! बीच-बीच में रास्तों के बीच में बैठी हुई गौवें मानो हमें आश्वस्त कर रही थीं कि आप प्रकृति की गोद में हैं; निश्चिन्त रहिए। पाँच बजते-बजते हमारी कार 49 किलोमीटर का सफर तय कर जरटाँग चैक पोस्ट पर आ रुकी। वहाँ कई गाड़ियाँ पहले से ही कतार में लगी थीं। यहाँ से आगे बीहड़ वनों वाला ज़रावा रिज़र्व शुरू होता है। अंडमान निकोबार के मूल आदिवासियों का क्षेत्र, जो आज भी सभ्यता से कोसों दूर अपनी एक अलग ही दुनिया में जीवन व्यतीत कर रहे हैं। हमने एक छप्पर में बने टी स्टाल में चाय पीते-पीते सामने लगे बोर्ड पर लिखी चेतावनियाँ पढ़नी प्रारम्भ कीं:
* यह एक सुरक्षित आदिवासी क्षेत्र है। यहाँ से आगे जाने के लिए प्रशासन की अनुमति ज़रूरी है।
* गाड़ियों की गति 40 किलोमीटर से अधिक न हो।
* सभी गाड़ियाँ पंक्ति में चलें।
* गाड़ियों के शीशे बंद रखें।
* मार्ग में रुकना मना है।
* आदिवासियों से किसी प्रकार की छेड़छाड़ करना या उन्हें कोई वस्तु देना या उनके चित्र खींचना मना है।
* याद रखिये आपके आगे एवं पीछे पुलिस की गाड़ियाँ चल रही हैं। आदि-आदि।

परमिट बनाने के बाद छह बजे गाड़ियों का काफिला, सभ्यता से कोसों दूर उन आदिमानवों की शरणस्थली, भयानक बीहड़ वनों के बीच में बढ़ चला। एक अजीब रोमांच से रोम-रोम सिहर रहा था।

मंथर गति से चलते हुए वाहन विशेष तौर पर आदिवासियों के लिए आरक्षित एक बहुत ही घने जंगल में प्रवेश कर रहे थे। एक संकरे मार्ग पर चलते हुए हम उस बीहड़ वन में प्रवेश कर रहे थे। चारों ओर आकाश को लगभग छूते हुए-से पेड़। इससे पहले मैंने अपने जीवन में इतने ऊँचे और विशाल वृक्ष कभी नहीं देखे थे। पेड़ों के आसपास अद्भुत किस्मों की अत्यधिक घनी झाड़ियाँ आपस में इस तरह से गुत्थम-गुत्था थीं कि हवा को भी बीच में से निकलने में अपनी पूरी शक्ति झोंकनी पड़े। जैसे-जैसे हमारी कार उस बीहड़ वन में आगे बढ़ रही थी, रोमांच से हमारे रोंगटे खड़े हो रहे थे। मुझे बचपन में पढ़े हुए वेताल के चरित्र वाले सैकड़ों कॉमिक याद आ रहे थे।
वेताल अमर है। वो कहीं भी कभी भी प्रगट हो सकता है। पिग्मी बौनों के नुकीले ज़हर बुझे बाणों से कोई नहीं बच सकता। इस जंगल से आज तक कोई जीवित नहीं लौटा। वगैरह-वगैरह!

रोमांच अपने चरम पर था। कार के बंद शीशों में से नज़रें चारों ओर घूम रही थीं। अब हम उस घनघोर जंगल में बहुत दूर आ चुके थे। आदिमानवों के इलाके में। किसी भी पल कहीं से भी………!
अचानक जॉय ने ज़ोर से कहा, "सर वो देखिए!"
शरीर की समस्त इन्द्रियों ने मानो अपनी शक्ति आँखों को दे दी हो। वो हमारे बिलकुल सामने थे।

जिधर जॉय ने इशारा किया था, हम सब की नज़रें उस ओर उठीं तो क्या देखते हैं कि तीन आदिवासी सामने से चले आ रहे हैं। जरावा आदिवासी। अंडमान निकोबार के मूल निवासी। शरीर पर वस्त्रों के नाम पर कुछ नहीं। शरीर का रंग ऐसा मानो ताम्बे को आग में ख़ूब पकाया गया हो। चेहरों पर अजीब-सी चित्रकारी। हाथों में तीर-कमान। एक पुरुष, एक स्त्री और एक बालक। अपनी ही धुन में मस्त। मानो साथ से गुज़रती हुई गाड़ियों से कुछ लेना-देना ही न हो। चूँकि गाड़ियों की गति कम करने की अनुमति नहीं थी सो क्षण भर में वे प्रकृति पुत्र पीछे छूट गए। जरावा क़बीले वाले अब हिंसक नहीं होते। बाद में कहीं पढ़ा कि एक गश्ती दल को एक बार एक जरावा आदिवासी कहीं घायल अवस्था में मिला तो वे उसे उठाकर शहर के अस्पताल में ले आये, जहाँ उसका उपचार करने के बाद वह स्वस्थ होकर अपने क़बीले में लौट गया। इससे एक अच्छा सन्देश गया और उस कबीले के लोगों की हिंसक प्रवृत्ति में कुछ कमी होने लगी।
लेकिन एक और कबीला है, सेन्टिनेल्स, जो बाहर के लोगों को देखते ही हिंसक हो उठता है। दुर्भाग्य से उनके सदस्यों की संख्या केवल 39 रह गयी है। अनेक रोगों एवं प्राकृतिक आपदाओं ने इनकी संख्या निरंतर कम कर दी है।

लगभग 47 किलोमीटर के सघन वन में से होते हुए हम एक विशाल नदी के किनारे आ पहुँचे। जॉय ने कार वहाँ पार्क की और हम नदी किनारे खड़े एक जलयान की ओर चले, जिस पर कुछ बसें लाद दी गयी थीं और बहुत से लोग भी सवार थे। हमें लेकर जलयान उस विशाल लबालब भरी नदी पर तैरने लगा।
वह जलयान लगभग आधे घंटे तक उस विशाल दरिया पर तैरता रहा। जल का एक अंतहीन सिलसिला। एक विशाल जलधारा, जिसके दोनों किनारे, जहाँ तक नज़र जाती थी, एक विशेष प्रकार के वृक्षों से ढँके हुए। आधे घंटे बाद जलयान दूसरे किनारे आ लगा। इस स्थान को जरटाँग कहते हैं। वहाँ हमें आठ-दस के समूहों में छोटी नौकाओं में बिठाया गया और फिर ये नौकाएँ एक निश्चित दिशा की ओर कुलाँचे भरने लगीं। नदी के दोनों ओर अत्यंत सघन वन और उनके बीच में से होकर बहती हुई विशाल नदी की धारा पर हमारी नौकाएँ दौड़ी चली जाती थीं। कभी-कभी चेहरों पर पानी की हलकी फुहारें पड़तीं तो हम बच्चों की तरह खिलखिला उठते। मन करता था कि काश ये सिलसिला लम्बा चले लेकिन अचानक हमारी नावें एक ओर को घूमी और वृक्षों के एक विशाल चक्रव्यूह में समाती चली गयीं। नदी की एक जलधारा एक ओर घूम गयी थी और उस विचित्र वनस्पति ने उसे पूरी तरह से ढँक लिया था। ऐसे, जैसे हम पानी से भरी हुई किसी सुरंग में प्रवेश कर गए हों। दोनों तरफ उन वृक्षों की जड़ों का एक जाल-सा बुना हुआ। कुछ देर चलने के बाद हमारी नौकाएँ लकड़ी के एक प्लेटफॉर्म के पास आकर रुकीं। लकड़ी की ही सीढ़ियाँ थीं, जिनसे ऊपर जाना था। यहाँ से 1.4 किलोमीटर की जंगल पदयात्रा करते हुए अद्भुत चूना गुफाओं तक पहुँचना था। बहुत ही ख़ूबसूरत वनमार्ग से होते हुए हम अपने दिग्दर्शक के पीछे-पीछे चल रहे थे।

सफेद चूने की विचित्र गुफाओं का एक लंबा सिलसिला था। दीवारों पर प्रकृति ने जैसे विभिन्न प्रकार की आकृतियाँ और चेहरे उकेर दिए गए हों! एक पुराना गाना याद आ गया- "ये कौन चित्रकार है!"
जब हम लौटे तो वे आकृतियाँ तो पीछे छूट गयीं पर पोर्ट ब्लेयर के उस ख़ूबसूरत द्वीप की स्मृतियाँ दिलो-दिमाग पर अंकित हो गयीं। हमेशा-हमेशा के लिए।

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रचनाकार परिचय

रवि ऋषि

ईमेल : ravi.naturewise@gmail.com

निवास : दिल्ली

जन्मतिथि- 15 जुलाई, 1957
शिक्षा- बी कॉम (ऑन)
संप्रति- सेवानिवृत्त बैंक अधिकारी
प्रकाशन- शहर में वनवास (ग़ज़ल संग्रह) एवं अखबार में फोटो (कहानी संग्रह) प्रकाशित।
सम्मान- राजधानी के प्रतिष्ठित कॉलेज श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स के सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार सम्मान से सम्मानित
पता- 202, ध्रुव अपार्टमेंट्स, आई० पी० एक्सटेंशन, दिल्ली- 110092
मोबाइल- 9810148744