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देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' के गीत

देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' के गीत

 
जो कुछ हूँ , जैसा हूँ ,प्रस्तुत हूँ 
मौलिक हूँ , अनुकरण नहीं हूँ

मैं विस्मृति के अतल गर्भ में
 
मैं विस्मृति के अतल गर्भ में 
उतर रहा हूँ सीढ़ी-सीढ़ी 
जाने अब आगंतुक पीढ़ी 
मैंने क्या कुछ नहीं किया है
 
उज्जयिनी, धारा,विदिशा की 
बसी हुई मुझमें यात्राएँ 
पाटलिपुत्र,मगध,वैशाली 
ताम्रलिप्ति की स्वर्णाभाएँ  
 
हर उत्सव में ,समारोह में 
पहुँचूँ अब कैसे संभव हो 
घर से बाहर गए बिना ही 
मैंने सब कुछ देख लिया है 
 
पारिजात था एक स्वर्ग में 
मैं उसको भू पर ले आया 
नूतन ताल छन्द स्वर लय से
अभिनव गीत-वितान सजाया 
 
धरती का आँचल रीता था 
सूना-सूना नील गगन था 
गिरि,वन,सर,रवि,शशि,उडुगन दे 
उनको मैंने क्या न दिया है 
 
नभ पर कभी-कभी ही घिरती 
स्वाति-नखत की छवि बदरीली 
सुधा कलश से बुझे नहीं जो 
ऐसी मेरी प्यास हठीली 
 
जनम-जनम से बहती मुझमें 
पल-पल पतित पावनी गंगा 
बदल-बदल कर घाट-घाट का 
पानी मैंने नहीं पिया है 
 
मलयज किसलय धूम्रवलयमय
मन का संवेदन पथराया 
तक्षशिला  से नालन्दा तक 
दुरभिसन्धिनी फैली छाया    
 
तुम्हें चाहिए छाँव घनेरी 
मीठे फल फूलों की ढेरी 
इसे नीर दो,इसे खाद दो 
पौधा मैंने रोप दिया है



गीत
स्वप्नजीवी गीत सत्यंवद हुए 
आत्मनेपद थे परस्मैपद हुए! 
 
दूसरों का भार हम ढोते रहे 
शब्द होकर भी रहे बस अर्थ के 
हर सफ़र में आदि से अवसान तक 
हम सबल कंधे बने असमर्थ के 
 
ध्वंस-क्षण में भी ऋचाएँ ही रचीं 
प्रलय पारावार में बरगद हुए !
 
हमीं ब्रह्मा के कमंडलु का सलिल 
विष्णु पद- क्षालन कभी हमने किया 
हमीं ने शिव की जटाओं से उलझ 
चंद्रकिरणों से स्रवित अमृत पिया 
 
भगीरथ की साधना के ताप से 
द्रवित होकर शिखर से हिमनद हुए! 
 
हम किसी की तर्जनी से भी नहीं 
कब उठे बैठे किसी संकेत पर 
दूसरों की नाव भी तट पर लगे 
धार बन बहते रहे हम रेत पर 
 
राम के बल पर भरोसा था हमें 
सभा में दशकंठ की अंगद हुए !
 
तोड़ दीं हमने सभी बैसाखियाँ 
अवसरों की पीठ पर हम कब चढ़े 
राजसी सम्मान पाने के लिए 
शाह के आगे क़सीदे कब पढ़े 
 
हम हदों से भी बँधे अनहद रहे 
जो सड़क थे वे सभी संसद हुए !



मौलिक हूँ अनुकरण नहीं हूँ 
 
जो कुछ हूँ , जैसा हूँ, प्रस्तुत हूँ
मौलिक हूँ , अनुकरण नहीं हूँ 
इस जीवित क्षण का मैं साक्षी हूँ 
मैं कल का संस्मरण नहीं हूँ
 
मुझसे यह आपको शिकायत है
धारा के संग मैं न बह पाया
भले नहीं डूबा उतराया हूँ 
किन्तु नहीं मैं तटस्थ रह पाया
संभव है ,चलने में भटका हूँ 
अनुगामी आचरण नहीं हूँ 
 
सम्पर्कों के कंधों पर चढ़कर
विजय केतु सा मैं कब लहराया
दरवाज़े पर दस्तक दी मैंने 
खिड़की की राह से नहीं आया
भाषातीत, भावों का स्पंदन हूँ
सूत्रबद्ध व्याकरण नहीं हूँ 
 
ऊसर में बहता गंगाजल हूँ
पोखर के पानी सा टिका नहीं 
स्वीकृति के पीछे कब ललचाया
कॉफी के प्यालों पर बिका नहीं 
टके टके, फुटपाथों पर बिकता
मैं सस्ता संस्करण नहीं हूँ 
 
जो कुछ हूँ , जैसा हूँ ,प्रस्तुत हूँ 
मौलिक हूँ , अनुकरण नहीं हूँ
 


मैं नवांतर…
 
मैं न कोई पथ-प्रदर्शक
मैं न अनुचर हूँ!
साथ रहकर भी, सभी के
मैं समांतर हूँ!
 
नाद हूँ मैं, प्रणव हूँ मैं
शून्य हूँ मैं, मैं न चुकता
कालयात्री हूँ, स्थविर हूँ
मैं न चलता, मैं न रुकता
 
आदि-अंत-विहीन हूँ मैं
मैं निरंतर हूँ!
 
मैं सृजन का हूँ अनुष्टुप
लय-प्रलय के गान मुझ में
रत्न-मणि मुक्ता धरे
डूबे हुए जलयान मुझमें
 
ज्वार-भाटों से भरा
अतलांत प्रांतर हूँ!
 
मैं नहीं हूँ दिव्यधन्वा
निष्कवच सैनिक विरथ हूँ
व्यूह-वलयित समर-जेता
मैं किसी इति का न अथ हूँ
 
मैं न सत्तापक्ष में हूँ
मैं समांतर हूँ!
 
मैं अँधेरे की शिला पर
ज्योति के अक्षर बनाता
मुझे परिभाषित करो मत
मैं स्वयं अपना प्रमाता
 
गीत हूँ, नवगीत हूँ मैं
मैं नवांतर हूँ!
 
 
 
मगहर के संत
 
काशी के पंडित हम हो लेंगे कल 
आज बना रहने दो मगहर का संत 
 
क्या होता पित्रोचित संरक्षण 
क्या होता माता का रसभीना स्नेह 
हमको तो अर्थहीन लगते सब 
सखा, स्वजन, बंधु, द्वार, गेह
 
हम हैं अज्ञात वंश निर्गुणिये आज 
खोजेंगे हममे गुण कल के श्रीमंत 
 
वृंतछिन्न आँधी के पारिजात हैं 
बह आये हम तट पर धार से 
महकेंगे उसके ही आँचल में 
उठा लिया जिसने भी प्यार से 
 
धूल भरे गलियारे सिर्फ़ आज हैं 
हो जायेंगे कल हम भीड़ों के पंथ 
 
रचे नहीं पिंगल या अलंकार 
चहके हम बन कर बन के पाँखी 
जाने कब लोगों ने नाम दिए 
दोहरा, रमैनी, सबदी, साखी 
 
पढ़े कहाँ हम पुराण निगमागम 
गढ़े कहाँ कालजयी कविता के ग्रन्थ 
 
मसि, कागद, कलम कभी गहे नहीं 
वाणी ने अटपटा वही कहा
जो कुछ देखा अपने आस-पास 
वह सब, जो हमने भोगा , सहा 
 
साधारण अर्थों के गायक हैं हम 
बने नहीं शब्दों के सिद्ध या महंत 
 
अपना घर फूँक कर तमाशा अब 
देख रहे हैं हम चौराहे पर 
बड़े जतन से जिसको ओढ़ा था 
ज्यों की त्यों धर दी लो वह चादर 
 
जली हुयी हाथ में, लुकाठी लेकर 
अनहद से मिला रहे आदि और अंत  

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रचनाकार परिचय

देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र'

ईमेल :

निवास : नई दिल्ली

जन्मतिथि- 01 अप्रैल 1934
निधन- 07अप्रैल 2023
जन्म स्थान- आगरा नगला अकबरा
प्रकाशन- ‘पथरीले शोर में’, ‘पंखकटी महराबें’, ‘कुहरे की प्रत्यंचा’, ‘ चुप्पियों की पैंजनी’, ‘दिन पाटलिपुत्र हुए’, ‘आँखों में रेत-प्यास’, ‘पहनी हैं चूड़ियाँ नदी ने’,‘अनंतिमा’, ‘घाटी में उतरेगा कौन’, ‘हम शहर में लापता हैं’, ‘गंधमादन के अहेरी’ और ‘एक दीपक देहरी पर’ उनके नवगीत-संग्रह हैं। उनका एक खंड-
काव्य ‘कालजयी’ शीर्षक से प्रकाशित है। ‘आँखों खिले पलाश’,‘सेंदुर-सा दिन घुल उठा’, ‘तन्हा खड़ा बबूल’ उनके दोहा-संग्रह हैं। ‘धुएँ के पुल’ और
‘भूला नहीं हूँ मैं’ उनके ग़ज़ल-संग्रह हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने ‘ताज की छाया में’ (कविता संग्रह), ‘यात्रा में साथ-साथ’ (नवगीत संग्रह) और ‘सप्तपदी’(दोहा संग्रह) का संपादन भी किया है।
सम्मान- उत्तर प्रदेश द्वाराहिन्दी संस्थान 'साहित्य भूषण' सम्मान से भी सम्मानित किया जा चुका है। 

सुविख्यात नवगीतकार हैं देवेंद्र शर्मा ‘इंद्रा’ के गीतों पर सैंकड़ों छात्रों ने शोध किया है। आपने प्रशासनिक सेवा पर अध्यापन को तरजीह देते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन किया।