Ira
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प्रगति गुप्ता के उपन्यास "पूर्णविराम से पहले" की चौथी कड़ी

एक उम्र के बाद प्रेम का स्वरूप कितना विशाल हो जाता है....प्रखर को अच्छे
से महसूस हुआ। इंसान जिसे सच्चा प्यार करता है उसके साथ के हर रिश्ते से
भी बहुत प्यार करने लग जाता है। तभी तो छोटे से ही अंतराल में समीर भी
उसका मित्र बनने लगा था।

नीलम तोलानी 'नीर' के लघु-उपन्यास 'करवाचौथ' की चौथी कड़ी

स्निग्धा और कबीर जैसे एक अलग ही दुनिया में पहुँच गए थे ...हर घड़ी या तो एक दूसरे के साथ रहना था या एक दूसरे के ख़यालों में रहना था। यह वह पहले वाला गोवा तो हरग़िज़ नहीं था ...यह तो एक अलग ही दुनिया थी ..जहाँ सिर्फ़ प्रेम था ..समुद्र की लहरें अब सिर्फ़ खिलखिलाहटें ही लाती थीं.. सारी फ़िज़ाएँ जैसे हमेशा रजनीगंधा की महक से महक रही होती थीं ...गोवा की हवा में इतनी मादकता तो पहले कभी नहीं थी। दिन इतने छोटे और रातें इतनी लंबी ...ऐसा तो कभी नहीं था ।

प्रगति गुप्ता के उपन्यास 'पूर्ण-विराम से पहले' की तीसरी कड़ी

स्कूल, कॉलेज, प्रखर का मिलना, फिर समीर से विवाह और समीर के विदा लेने के बाद उसकी डायरियों का मिलना। रिश्तों से जुड़े समीकरण। कितनी बातें, कितनी यादें। अथाह समंदर के जैसी। जितना गहरे उतरते जाओ, न जाने कितनी रंग-बिरंगी सीपियाँ आसपास बिखरी हुई दिख रही थीं। कुछ बदरंग सीपियाँ भी जीवन के यथार्थ को सहेजे हुई थीं।

नीलम तोलानी 'नीर' के लघु-उपन्यास 'करवाचौथ' की तीसरी कड़ी

डूबते सूर्य की किरणें सुनहरी रेत पर परावर्तित होकर मरीचिका जैसा आभास दे रही थी.. देखते देखते कबीर सोचने लगा.. पिछले तीन दिन से मेरी हालत भी कुछ कुछ ऐसी ही हो गई है। कभी वह बहुत पास होती है और मैं उसे बाहर हर जगह देख रहा होता हूँ...जब उसे मरीचिका जान उसके अस्तित्व को नकारने लगता हूँ ,संभलने लगता हूँ, तो फिर अचानक से उसकी झलक... वहीं प्यास जगा जाती है। पता नहीं आगे क्या हो? मरीचिका या हक़ीक़त?