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देवेन्द्र कुमार पाठक 'महरूम' की कहानी 'आख़िरी हँसी'

गँवई-गाँवों में ज़्यादातर लोगों के नामों के शुरुआती शब्दों को तोड़-मरोड़, काट-छाँटकर कहने- बोलने का चलन सदियों से है। दरअसल इससे कहने-बुलाने में बड़ी सुविधा और सरलता होती है और आत्मीय निकटता मानी-समझी जाती है। मसलन, राजेश को रज्जू, रमेश को रम्मू, बड़े बेटे को बड़कुर, बड्डू या बड़का, छुटके को लहुरा, छोटू या चुट्टू। लड़कियों के नामों की भी काट-छाँट कर दी जाती है। सीता- सितिया हो जाती है, पूर्णिमा- पुनिया और शीला- सिल्ली।

हंसा दीप की कहानी- बैटरी

प्रकृति के इस रूप का सामना करने के लिए इंसान को बहुत तैयारी करनी पड़ती। कभी-कभी जब इंसानी मस्तिष्क से चूक हो जाए तो लोग “आ बर्फ, मुझे जमा कर देख” की तर्ज पर सोफी की तरह जानबूझ कर बर्फीले मौसम को चुनौती देने की गलती कर बैठेते। सोफी का हठ कहें या फिर मजबूरी, वह इस जानलेवा मौसम में हाईवे पर है, गाड़ी में। कल उसे ज्वाइन करना है। जाना जरूरी है। 

शशि श्रीवास्तव की कहानी- घर

काश उसके पैदा होते ही माँ की बीमारी से वह भी संक्रमित हो जाती। दादी उसे बकरी का दूध पिला कर ना पालती, मरने देती। ना वह होती ना उसे घर की तलाश होती। घर जहां जिंदगी साँस लेती है। हँसती है। मुस्कुराती है। ऐसे घर की आरजू सबको होती है। पर मिलता किसी किसी को है।

सूर्यबाला की कहानी- यादों के बंदनवार

व्यक्ति कभी बुरा नहीं होता, स्थितियाँ बनाती हैं उसे बुरा..." लेकिन मई की वह जलती-झुलसती दोपहरी में कभी नहीं भूल सकती, जब विश्वविद्यालय ऑफिस के अपने कक्ष में विभागाध्यक्ष ने दहाड़कर, मुझे मिल चुकी छात्रवृत्ति के अनुमति पत्र पर, सिर्फ इसलिए अपने हस्ताक्षर करने से मना कर दिया था, क्योंकि उनके द्वारा संस्तुति किये गये शोध छात्र की छात्रवृत्ति नहीं स्वीकृत हुई थी।....